साम्प्रदायिक पंचाट – Communal Award in Hindi

Dr. Sajiva#AdhunikIndia

16 अगस्त, 1932 की ब्रिटिश प्रधानमंत्री रेम्जे मेकडोनाल्ड ने “साम्प्रदायिक पंचाट” या “साम्प्रदायिक निर्णय” (Communal Award or Macdonald Award) की घोषणा की. यह अंग्रेजों द्वारा भारत में अपनाई गई “फूट डालो और राज करो” की नीति का एक अन्य उदाहरण था.

साम्प्रदायिक पंचाट

भारतीय राष्ट्रवाद के विकास को दबाने के लिए अंग्रेजों ने बल प्रयोग के अतिरिक्त छल-प्रपंच एवं कूटनीति का भी सहारा लिया. भारतीय एकता को कमजोर करने तथा अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए सरकार ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपनायी. देशी नरेश और पूंजीपति वर्ग को तो वह पहले ही अपना हिमायती बना चुकी थी. मुस्लिम लीग के नेतृत्व में मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग भी उनका पिट्ठू बन चुका था. इसके अतिरिक्त सिख, हरिजन, एंग्लो इण्डियन, समुदाय भी विशेष सुविधाओं के लिए प्रयास कर रहे थे. फलस्वरूप जब संवैधानिक समस्याओं के निराकरण के लिए द्वितीय गालमेज सम्मेलन बुलायी गयी तो अंग्रेजों ने सबसे अधिक महत्त्व सांप्रदायिक प्रश्नों के निबटारे को दिया. इस तरह गोलमेज सम्मेलनों से न तो समस्या का समाधान होना था और न हुआ.

गोलमेज सम्मेलन के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों के बीच की आपसी खाई को और बढ़ाने का निश्चय किया. इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर ब्रिटिश प्रधानमंत्री मैकडोनाल्ड ने 16 अगस्त, 1932 को अपनी प्रसिद्ध घोषणा की, जो ‘सांप्रदायिक निर्णय’ या ‘साप्रंदायिक पंचाट’ (Communal Award or Macdonald Award) के  नाम से प्रसिद्ध है.

कम्युनल अवार्ड के प्रावधान

इस अवार्ड में निम्न प्रावधान थे –

  1. प्रांतीय व्यवस्थापिका सभाओं की सदस्य संख्या बढ़ाकर दोगुनी कर दी गयी.
  2. अल्पसंख्यक तथा विशेष हितों वाले संप्रदायों की संख्या बढ़ा दी गयी. इसके अन्तर्गत अब मुसलमानों, सिक्खों, दलितों, पिछड़ी जातियों, भारतीय ईसाइयों, एंग्लो इण्डियनों, यूरोपीयन, व्यापारिक एवं औद्योगिक वर्गों को रखा गया.
  3. अल्पसंख्यकों के लिए अलग निवार्चन की व्यवस्था की गयी.
  4. अछूतों को हिन्दुओं से अलग मानकर उनके लिए भी निर्वाचन तथा प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया गया.
  5. स्त्रिायों के लिए भी कुछ स्थान आरक्षित किये गये.
  6. श्रम, वाणिज्य, उद्योग, चाय बगान संघों, जमींदारों और विश्वविद्यालयों के लिए भी पृथक निर्वाचन की व्यवस्था की गयी तथा स्थान आरक्षित किये गये.
  7. जिन क्षेत्रों में हिन्दू अल्पसंख्या में थे, उन्हें वैसी रियायत नहीं दी गयी जैसी मुसलमानों को दी गयी, जहाँ उनकी जनसंख्या कम थी. जिन प्रान्तों में मुसलमानों की संख्या कम थी, वहाँ जनसंख्या के अनपुात से भी अधिक प्रतिनिधित्व दिया गया. परन्तु पंजाब और बंगाल जहाँ मुसलमान बहुमत में थे, उनके लिए पृथक निर्वाचन की व्यवस्था की गयी. इसी प्रकार उत्तर प्रदेश, बिहार, मद्रास में मुसलमानों को जनसंख्या के अनुपात से दुगुने के लगभग स्थान दिये गये.

अलग निर्वाचन की व्यवस्था

सरकार के ‘साप्रंदायिक निणर्य’ से वर्ग विशेष के प्रतिनिधि जिनके स्वार्थों की सुरक्षा हुई थी, प्रसन्न थे, जबकि राष्ट्रवादी लोग, कांग्रेस और विशेषकर गांधीजी अत्यंत दु:खी हुए. इस निर्णय की योजना इस प्रकार बनायी गयी थी कि प्रांतों में वास्तविक उत्तरदायी सरकार का विकास न हो सके. यह निर्णय पक्षपात पर भी आधारित था, जिसमें मुसलमानों और यूरोपीयन को विशेष रियायतें प्रदान की गयी थी. हिन्दुओं में फूट डालने के उद्देश्य से अस्पृश्यों के लिए अलग निर्वाचन की व्यवस्था की गयी. गांधीजी इस निर्णय से अत्यंत दु:खी हुए. इस निणर्य का सबसे दु:खद पहलू यह था कि इसने मुसलिम साप्रंदायिकता के विकास को बढा़वा दिया. 1931 की जनगणना के अनसुार बंगाल में मुसलमान कुल जनसंख्या का 54.8% और हिन्दू 44.8% थे, लेकिन प्रांतीय विधानमंडल के 250 स्थानों में से 119 स्थान मुसलमानों को तथा 80 स्थान हिन्दुओं को दिये गये. इस तरह हम देखते हैं कि मुसलमानों के प्रति तुष्टिकरण की नीति अपनायी गयी. शीघ्र ही लीग मुसलमानों के लिए और आर्थिक सहुलियतें मांगने लगी और अंततः देश का विभाजन हुआ.

मैकडोनाल्ड अवार्ड का स्वरूप

वैसे तो सम्पूर्ण मैकडोनाल्ड अवार्ड ही अन्यायपूर्ण था, लेकिन अवार्ड का दलित वर्गों (अस्पृश्य) से संबंध रखने वाला उपबंध तो महात्मा गांधी के लिए असहनीय था. 18 अगस्त, 1932 को मैकडोनाल्ड को एक पत्र लिखकर गांधीजी ने इस निर्णय का विरोध किया. उन्होंने यह भी धमकी दी कि सरकार यदि अछूतों के लिए पृथक निर्वाचन प्रणाली समाप्त नहीं करेगी, तो वे 20 सितम्बर, 1932 से आमरण अनशन आरंभ कर देंगे. सरकार ने इस पत्र पर कोई ध्यान नहीं दिया, उल्टे उन्हीं पर आरोप लगाया कि वे दलितों का उत्थान नहीं चाहते. अतः गांधीजी ने यरवदा जेल में ही अनशन शुरू कर दिया. गांधीजी के अनशन से देश के सार्वजनिक जीवन में हलचल मच गयी. पंडित मदन मोहन मालवीय, डा. राजेन्द्र प्रसाद तथा अनेक हिन्दू नेता पहले बम्बई में, फिर पूना में एकत्रित हुए. डा. अम्बेडकर से समझौता वार्ता शुरू की गयी तथा 24 सितम्बर को एक हल निकल आया.

यह हल ही ‘पूना पैक्ट’ के नाम से प्रसिद्ध है, जिसे बाद में हिन्दू महासभा और ब्रिटिश सरकार के द्वारा भी स्वीकार कर लिया गया.

निष्कर्ष

महात्मा गाँधी ने इसे भारतीय एकता एवं राष्ट्रवाद पर एक प्रहार के रूप में देखा. उनके अनुसार साम्प्रदायिक पंचाट हिन्दुओं के साथ-साथ दलित वर्ग के लिए भी हानिकारक थी क्योंकि इसमें दलितों की मूल समस्या के समाधान के लिए कोई प्रावधान नहीं था. इस वर्ग को एक पृथक राजनीतिक इकाई के रूप में मान्यता मिलने से अस्पृश्यता का मुद्दा गौण होने की संभावना थी.

महात्मा गाँधी ने माँग की कि दलित वर्ग से प्रतिनिधियों का निर्वाचन सार्वभौमिक मताधिकार के आधार पर निर्मित एक व्यापक तथा संयुक्त निर्वाचक मंडल द्वारा किया जाए. हालाँकि उन्होंने दलित वर्ग के लिए बड़ी संख्या में सीटें आरक्षित करने की माँग का विरोध नहीं किया. अपनी मांगों को मनवाने के लिए गाँधी जी पूना की यरवदा जेल में आमरण अनशन पर बैठ गये. इस समझौते के समाधान के लिए विभिन्न विचारधारा वाले नेताओं जैसे बी.आर. अम्बेडकर, एम.सी. रजा तथा मदनमोहन मालवीय ने मिलकर पूना समझौता का आधार तैयार किया.

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