दक्षिण भारत की सर्वाधिक प्राचीन भाषा संभवतः तमिल थी. विद्वानों की राय है कि संभवतः स्थानीय भाषाओं के रूप में यहाँ तेलगु, मलयालम और कन्नड़ भाषाएँ भी प्रयोग में आती रहीं. वैदिक संस्कृति से सम्पर्क के बाद यहाँ संस्कृत भाषा के अनेक शब्द अपनाए गए और ई.पू. तीसरी शताब्दी में 44 वर्णों पर आधारित एक लिपि का विकास किया गया. संगमकालीन साहित्य इसी लिपि में लिखा गया. पुरातत्वविदों को 75 से भी ज्यादा ब्राह्मी लिपि (जो बायीं ओर से दायीं ओर लिखी जाती है) में लिखे अभिलेख मदुरा और उसके आस-पास की गुफाओं में प्राप्त हुए हैं. इनमें तमिल के साथ-साथ प्राकृत भाषा के भी कुछ शब्दों का प्रयोग किया गया है. सुदूर दक्षिण के जन जीवन पर पहले-पहल संगम साहित्य से ही स्पष्ट प्रकाश पड़ता है. ई. सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों के दौरान तमिल अकादमियों में संकलित साहित्य को संगम साहित्य (Sangam Sahitya) कहा जाता है.
संगम साहित्य (Sangam Sahitya)
संगम तमिल कवियों का संघ अथवा मंडल था. संगम कवियों को राज्य की सहायता प्राप्त थी जिसके कारण संगम में विशाल साहित्य की रचना हुई. यह मानना सही है कि संगम साहित्य का विशाल भण्डार रहा होगा. जो साहित्य हमें आज उपलब्ध है वह उसका एक हिस्सा ही है. मोटे रूप से यह साहित्य निम्नलिखित संकलनों में प्राप्त हैं – नरिनई, कुरुन्दोहई, ऐन्गुरुनुरु, पत्तुप्पत्त, पदिटुप्पतु, परिपाड़ल, कलित्तोहई, अहनानुरु और पुरनानुरू. विद्वानों की राय है कि तमिल कवियों के कुल तीन संगम हुए हैं जिनमें करीब 8,598 कवियों ने भाग लिया. ऊपर वर्णित संकलनों में जो रचनाएं आज उपलब्ध हैं वे कुल 2289 हैं. इनमें कुछ कविताएँ बहुत छोटी, मात्र तीन पंक्तियों की है तो कुछ एक बहुत लम्बी हैं. अधिकांश कविताओं के अंत में टिप्पणी भी दी गई है जिनमें कवियों के नाम और उस कविता-रचना की परिस्थितियों का भी उल्लेख है. पहले दो संगमों (first two Sangams) के बारे में कोई इतिहास उपलब्ध नहीं है और उनमें जिस साहित्य का सृजन हुआ उसका भी कुछ पता नहीं. पर तीसरे संगम (third sangam) के बारे में कुछ जानकारी उपलब्ध है. यह संगम पांड्यों की राजधानी मदुरा में हुआ. इस सम्मलेन में तमिल कवियों ने पर्याप्त संख्या में हिस्सा लिया होगा. एक विद्वान् के अनुसार इसके 473 कवियों और कवयित्रियों ने भाग लिया. तमिल साहित्य के अनुसार ये संगम 9,900 वर्ष चले. लेकिन अधिकांश विद्वान् इस काल को सही नहीं मानते. उनके विचारानुसार संभवतः इतनी लम्बी अवधि केवल संगम साहित्य को प्राचीनता की गरिमा और महत्ता प्रदान करने के लिए ही बताई गई होगी. संगम साहित्य के विवरणों के अनुसार संगम साहित्य के तीनों सम्मेलनों की 197 पांड्य राजाओं ने संरक्षण प्रदान किया.
रचना काल
संगम साहित्य की रचना काल के बारे में विद्वानों में बहुत मतभेद है. कुछ विद्वानों की राय है कि इस साहित्य का संकलन 300 से 600 ई. के काल में हुआ. चाहे इसका रचना काल कुछ भी मान लिया जाए परन्तु इसकी एक ऐतिहासिक स्रोत के रूप में महत्ता से कोई भी विद्वान् इन्कार नहीं कर सकता.
महत्त्व
संगम साहित्य ही एकमात्र ऐसा साहित्यिक स्रोत है जो सुदूर दक्षिण के जनजीवन पर सर्वप्रथम विस्तृत और स्पष्ट प्रकाश डालता है. यद्यपि इससे हमें वहाँ के राजनीतिक जीवन की तिथिक्रम के सम्बन्ध में समुचित ज्ञान नहीं मिलता, फिर भी यह मनना पड़ेगा कि यह साहित्य वहाँ के सामजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक जीवन के सम्बन्ध में पर्याप्त सामग्री प्रस्तुत करता है. इसी साहित्य से हमें पता चलता है कि दक्षिण के तीन प्रमुख राज्य – पांड्य, चोल और चेर परस्पर संघर्षरत रहे. इसी साहित्य से हमें दक्षिण और उत्तरी भारत की संस्कृतियों के सफल समन्वय का स्पष्ट चित्र प्राप्त होता है. यह साहित्य हमें बताता है कि दक्षिण के तीनों राज्यों ने प्राकृतिक संसाधनों का लाभ उठाते हुए किस प्रकार विदेशी व्यापार का प्रसार किया. उनके व्यापारिक सम्बन्ध कैसे थे, इस बारे में भी हमें यथेष्ट जानकारी देता है. संगम कविताएँ तमिल भाषा की पहली सशक्त रचनाएँ मानी जाती हैं. इन कविताओं में संस्कृत भाषा के अनेक शब्दों के तमिल भाषा में आत्मसात करने के प्रमाण भी प्राप्त होते हैं. यह साहित्य इस बात का ज्वलंत प्रमाण देता है कि दक्षिण की द्रविड़ और उत्तर की आर्य संस्कृति ने परस्पर बहुत कुछ आदान-प्रदान किया और देश की एक समन्वित (जिसे सामान्यतः हिन्दू संस्कृति भी कहा जाता है) संस्कृति प्रदान की.
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