- अपने उत्तर में अंडर-लाइन करना है = Green
- आपके उत्तर को दूसरों से अलग और यूनिक बनाएगा = Yellow
सामान्य अध्ययन पेपर – 2
व्हिप जारी करने से सांसदों की स्वतंत्रता और स्वाधीनता कम हो जाती है तथा इस पर नए सिरे से विचार किये जाने का समय आ गया है. आलोचनात्मक चर्चा कीजिये.
Syllabus :-
संघ एवं राज्यों के कार्य तथा उत्तरदायित्व, संघीय ढाँचे से सम्बंधित विषय एवं चुनौतियाँ, स्थानीय स्तर पर शक्तियों और वित्त का हस्तांतरण और उसकी चुनौतियाँ.
सवाल की माँग
✓ व्हिप के बारे में संक्षेप में आपको शुरुआत में बताना पड़ेगा.
✓आलोचनात्मक उत्तर लिखने कहा गया है. और प्रश्न में खुद कहा जा रहा है कि व्हिप लोकतंत्र के घातक हो सकता है. इसलिए प्रश्न की माँग पर टिके रहें.
X आलोचनात्मक उत्तर लिखना है जो प्रश्न की माँग है इसलिए व्हिप के विषय में सकारात्मक पहलू को उत्तर में न लिखें. भले आपसे यदि यह पूछा जाता कि आपकी क्या राय है, व्हिप अच्छा है या बुरा …तब आप अपनी राय रख सकते थे. पर यहाँ पर कोई स्कोप नहीं है.
उत्तर की रूपरेखा
- परिभाषा भूमिका के रूप में
- व्हिप किस प्रकार बुरा है?
- निष्कर्ष
उत्तर :-
व्हिप विधायिका में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. यह राजनीतिक दल तथा इसके निर्वाचित प्रतिनिधियों के बीच सेतु के रूप में कार्य करता है.
व्हिप को लोकतंत्र की मान्यताओं के अनुकूल नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि इसमें सदस्यों को अपनी इच्छा से नहीं, बल्कि पार्टी की इच्छा के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य होना पड़ता है जो लोकतंत्र की भावनाओं के विरुद्ध है. इसके अतिरिक्त व्हिप का उल्लंघन करने के वाले सांसद अयोग्य भी घोषित कर दिए जाते हैं. यदि कोई सांसद पार्टी का व्हिप का उल्लंघन कर सदन से जानबूझकर अनुपस्थित रहता है, तो ऐसा सदस्य भी अयोग्य घोषित हो सकता है. ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या व्हिप व्यवस्था जनतंत्र की भावना का उल्लंघन नहीं है? यह नियम जो की न तो भारतीय संविधान में अपना स्थान रखता है और न ही संसद की नियमावली में, इसे किस प्रकार उचित ठहराया जा सकता है? प्रतीत होता है कि व्हिप प्रणाली को राजनितिक दलों ने अपने स्वार्थ के लिए बनाया है.
व्हिप का शाब्दिक अर्थ “कोड़ा” होता है, एवं सच में यह नियम वस्तुतः जनतंत्र के लिए एक कोड़ा ही है. जनप्रतिनिधि राजनितिक दल के नहीं बल्कि जनता के प्रतिनिधि होते है, उन्हें संसद में जनता का प्रतिनिधित्व करने के लिए जनता द्वारा भेजा जाता है, परन्तु व्हिप व्यवस्था मूलतः राजनीतिक दलों के हितों की रक्षा के लिए ही प्रतीत होती है.
ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा स्थापित इस व्यवस्था को राजनीतिक दलों ने अपने स्वार्थ के लिए लागू रखा. अधिक उचित यह होता की जनप्रतिनिधियों को किसी भी क़ानून पर अपने विवेक का प्रयोग कर मत रखने का पूर्ण अधिकार होता. परन्तु दुर्भाग्यवश इस प्रणाली ने सांसदों को मात्र रबड़ स्टाम्प बना दिया है तथा विधायिका में उनकी सक्रिय भागीदारी को भी हतोत्साहित किया है.
क्या मंत्रिमंडलों ने अनुच्छेद 123 का सही तौर पर अनुपालन किया है? इस संदर्भ में अपने विचार प्रकट करें.
Syllabus :-
संसद और राज्य विधायिका – संरचना, कार्य, कार्य-संचालन, शक्तियां एवं विशेषाधिकार और इनसे उत्पन्न होने वाले विषय.
सवाल की माँग
✓ यह व्हिप वाले सवाल से भिन्न इसलिए है क्योंकि इस प्रश्न में आपके राय के बारे में पूछा जा रहा है. इसमें प्रश्न में यह नहीं कह दिया गया है कि अनुच्छेद 123 गलत है, पुष्टि करें. इसलिए आप अपने राय को रखने के लिए स्वतंत्र हैं. मंत्रिमंडलों ने इस अनुच्छेद का अनुपालन किया है या नहीं….इसका उत्तर आप अपने तर्क से लिखें जैसा हमने लिखा है.
X यदि आप अपना तर्क प्रस्तुत कर रहे हैं तो उदाहरण भी दीजिये. हवा में बात करने से कोई फायदा नहीं. नंबर नहीं मिलेगा.
X एक बात ध्यान रखियेगा कि कभी भी किसी दल विशेष की बुराई मत कीजियेगा. जैसे कि कांग्रेस ने इसका दुरूपयोग किया और भाजपा ने इसका प्रयोग ठीक से किया क्योंकि हो सकता है कि परीक्षक कांग्रेस का पक्षधर हो या भाजपा का पक्षधर हो…आप जहाँ कुछ खिलाफ लिखोगे तो नंबर वह उसी तरह से काटेगा जैसे किसान गन्ना काटते हैं. हमने भी उत्तर में जवाहर लाल नेहरु (कांग्रेस) के कृत्यों की बुराई की…पर बाद में मोदी जी को भी लपेट लिया…ताकि उत्तर बैलेंस्ड रहे…
उत्तर की रूपरेखा
- Art 123 की परिभाषा भूमिका के रूप में जिससे पता चले कि आप इस अनुच्छेद के बारे में जानते भी हैं या नहीं.
- उदाहरण प्रस्तुत कीजिए कि कब-कब क्या कैसे हुआ…अपने कथन की पुष्टि कीजिये.
- निष्कर्ष
उत्तर :-
संविधान का अनुच्छेद 123 राष्ट्रपति को शक्ति देता है कि यदि संसद के दोनों सदनों का सत्र न चल रहा हो और राष्ट्रपति को यह संतुष्टि हो जाए कि देश में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है कि तत्काल कार्रवाई करने की जरूरत है तो वह इस संदर्भ में अध्यादेश जारी कर सकता है. ऐसे अध्यादेशों का प्रभाव और शक्ति संसद द्वारा बनाए गए कानूनों के समान ही है. दरअसल, भारतीय संविधान में राष्ट्रपति की लगभग सभी शक्तियां प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद अथवा सरकार की शक्तियां ही हैं. इसलिए वास्तव में अध्यादेश जारी करने का पूरा श्रेय सरकार को ही जाता है.
भारत के संविधान के अनुपालन का सबसे पहला अवसर भारत के प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू को प्राप्त हुआ. नेहरु को अनुच्छेद 123 को परिभाषित करने का विलक्षण अवसर भी प्राप्त हुआ था. उन्होंने इस कार्य को गंभीरतापूर्वक नहीं किया. वासत्व में तीन अध्यादेश तो उसी दिन ज़ारी कर दिए गये थे जिस दिन संविधान लागू हुआ था अर्थात् 26 जनवरी, 1950 को एवं उसी साल के अंत तक अठारह अन्य अध्यादेश ज़ारी कर दिए गये थे.
कदाचित् अनुच्छेद 123 की त्रासदी यह नहीं है कि इस प्रावधान का हर बार प्रयोग किया गया, बल्कि इसकी त्रासदी यह है कि जिन परिस्थितियों में इसका प्रयोग हुआ, उस समय ऐसा करने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं थी. 1952 और 2009 के बीच ज़ारी किये गये अध्यादेशों में लगभग 177 अध्यादेश उन दिनों ज़ारी कर दिए गये थे जब संसद का सत्र पंद्रह दिन पश्चात् प्रारम्भ होने वाला था या यूँ कहें कि जिसका अंत हुए सिर्फ़ पंद्रह दिन ही हुए थे. उसके उपरान्त कुछ ऐसे भी अवसर प्राप्त हुए जब यह जानते हुए भी कि संसदीय अनुमोदन के लिए आवश्यक बहुमत नहीं है, मंत्रिमंडल ने अध्यादेश ज़ारी कर दिये. ऐसी स्थिति में अनुच्छेद 123 ही वह वैकल्पिक मार्ग था जिसकी सहायता से बहुमत न होते हुए भी कानून “लागू” किया जा सकता है.
कभी-कभी तो मंत्रिमंडल ने ऐसे अध्यादेश भी ज़ारी किये हैं जिनका उद्देश्य प्रथम दृष्ट्या संसदीय छानबीन से बचना था. विश्व व्यापार संगठन के सुधारों को लागू करने के लिए नरसिंह राव का पेटेंट (संशोधन) अध्यादेश, 1994 इसका एक अच्छा उदाहरण है. मंत्रिमंडल ने राजनैतिक वर्चस्व प्राप्त करने के लिए यह हथकंडा अपनाया. जुलाई, 1969 में संसदीय सत्र प्रारम्भ होने से केवल एक दिन पूर्व ही ज़ारी इंदिरा गांधी का बैंकों का राष्ट्रीयकरण अध्यादेश, 1969 भी इसका एक अच्छा उदाहरण है.
हाल ही में मोदी सरकार द्वारा ताबड़तोड़ तरीके से पारित किए गए अध्यादेशों को राष्ट्रपति मुखर्जी ने इसी परिप्रेक्ष्य में देखा. विपक्षी दलों ने कहना शुरू कर दिया कि यह संविधान के साथ ‘धोखा’ है और लोकतांत्रिक व्यवस्था को नुकसान पहुंचाने वाली प्रक्रिया है, विशेषकर तब जब सरकार लगातार अध्यादेशों को विधायिका के सामने रखने से बच रही हो.
अगर व्यवहारिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो भारत में सरकारों का कोई भी निर्णय गैर-राजनीतिक होना संभव नहीं है. सरकार कई बार सियासी चश्मे से ही अपने हर निर्णय की गंभीरता को आँकना शुरू कर देती है. ऐसे में अनुच्छेद 123 के दुरुपयोग की सूची लंबी होना स्वभाविक है.
“संसार मंथन” कॉलम का ध्येय है आपको सिविल सेवा मुख्य परीक्षा में सवालों के उत्तर किस प्रकार लिखे जाएँ, उससे अवगत कराना. इस कॉलम के सारे आर्टिकल को इस पेज में संकलित किया जा रहा है >>Sansar Manthan