[संसार मंथन] मुख्य परीक्षा लेखन अभ्यास – History GS Paper 1/Part 2

Sansar LochanGS Paper 1, Sansar Manthan

सामान्य अध्ययन पेपर – 1

मौर्य शासकों का वास्तुकला की प्रगति में क्या योगदान रहा और अशोकीय कला पर विदेशी प्रभाव का होना कहाँ तक सच है? मूल्यांकन करें . (250 words) 

यह सवाल क्यों?

यह सवाल UPSC GS Paper 1 के सिलेबस से प्रत्यक्ष रूप से लिया गया है –

“भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से आधुनिक काल तक के कला के रूप, साहित्य और वास्तुकला के मुख्य पहलू शामिल होंगे”.

सवाल का मूलतत्त्व

सवाल के अंत में “मूल्यांकन करें” लिखा है. मूल्यांकन करने का अर्थ हुआ कि आपको अपने उत्तर में सिर्फ उसकी विशेषताओं के बारे में जिक्र नहीं करना है. आपको प्रश्न में उल्लिखित कथन के अभिलक्षण या विशेषताओं के सबल या दुर्बल पक्ष का विश्लेषण करना है.

आप कोई योगदान नहीं रहा….या बहुत योगदान रहा….मन में गाँठ बाँधकर उत्तर लिखना शुरू नहीं करें. आपको अपने उत्तर में मौर्यकालीन वास्तुकलाओं का उदाहरण तो देना ही होगा, साथ-ही साथ आपको यह मूल्यांकन करना होगा कि अशोक के समयकालीन राजकीय स्थापत्य और मूर्तिकला पर विदेशी प्रभाव था या नहीं. इसके लिए आपको अपने उत्तर में विभिन्न इतिहासकारों का मत भी परोसना होगा.

उत्तर

मौर्य शासकों ने वास्तुकला की प्रगति में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया. उत्खनन के आधार पर कहा जाता है कि हड़प्पा संस्कृति के लगभग 1500 वर्षों के बाद पहली बार मौर्य काल में वास्तुकला तथा मूर्तिकला को बड़े पैमाने पर प्रोत्साहन मिला. निःसंदेह मौर्य काल के पहले हाथी दाँत, मिट्टी और धातु कला के काम के उल्लेख तो पर्याप्त रूप से मिलते हैं लेकिन कला और वास्तुकला के मूर्त उदाहरण बहुत कम उपलब्ध हैं.

मौर्यकाल में वास्तुकला का प्रथम उदाहरण चन्द्रगुप्त मौर्य का प्रासाद है. इसका सभा भवन अनेक स्तम्भों पर खड़ा था जिन पर अत्यधिक सुन्दर मूर्तियों और चित्रकला का प्रदर्शन किया गया था. मेगस्थनीज के अनुसार ईरान की राजधानी सूसा के राजप्रासाद से यह प्रासाद अधिक सुन्दर तथा भव्य था. सम्राट् अशोक का महल भी इतना ही शानदार था. पाँचवीं शताब्दी में आने वाले चीनी यात्री फाह्यान ने अशोक के महलों के खंडहरों को देखकर कहा कि “कदाचित् उसको मनुष्यों ने नहीं बल्कि देवताओं ने बनाया होगा”. इसके  सभा-भवन की लम्बाई 140 फुट और चौड़ाई 120 फुट थी. बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार अशोक ने 8,400 स्तूप (ठोस अंडाकार समाधि), चैत्य (सामूहिक पूजा-मन्दिर) और विहार (बौद्ध भिक्षुओं के रहने के मठ) बनवाये थे. अशोक के बाद दशरथ ने आजीविक साधुओं के लिए बराबर की पहाड़ियों में गुप्त मंदिर बनवाया. संभवतः अशोक ने श्रीनगर तथा ललितपाटन (नेपाल) नामक दो नगरों का निर्माण करवाया. इस काल की कलात्मक कृतियों में अशोक के स्तम्भों का प्रमुख स्थान है. भारतीय इतिहासकार डॉ. राधा कुमुद मुखर्जी के अनुसार “उसके स्तम्भ ललित कलाओं के क्षेत्र में मौर्यों की उच्चतम सफलता के प्रतीक हैं.”

अशोक के स्तम्भ चुनार के बलुआ पत्थर के बने हुए हैं और 40 फीट से 50 फीट तक ऊँचे हैं. इन स्तम्भों की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि प्रायः प्रत्येक स्तम्भ के ऊपर एक अलग पत्थर का मस्तक है. मस्तक के तीन भाग हैं. सबसे नीचे का भाग उल्टी घंटी की तरह है. स्तम्भों का सबसे सुन्दर उदाहरण सारनाथ का सिंहशीर्ष वाला स्तम्भ है जिसे भारत सरकार ने राष्ट्रीय चिन्ह के रूप में स्वीकार किया है.

मौर्य काल में राजकीय स्थापत्य और मूर्तिकला के असाधारण विकास पर किस सीमा तक यूनानी और ईरानी सम्पर्क का प्रभाव था, इस प्रश्न पर विद्वानों में मतभेद है. स्मिथ ने प्रतिपादित किया है कि ईरान तथा यवन राज्यों के साथ सम्पर्क से मौर्य कला बहुत हद तक प्रभावित हुई.

स्मिथ ने ध्यान दिलाया है कि अशोक के लगभग एक शती उपरान्त जब साँची में सारनाथ जैसा सिंहशीर्ष बनाने का प्रयास किया गया तो वह प्रयास सफल नहीं हुआ क्योंकि उस समय विदेशी कलाकार उपलब्ध नहीं थे. व्हिलर का भी विचार था कि अशोक के कलाकार ईरानी थे जो हख़ामनी साम्राज्य के पतनोपरान्त बेकार हो जाने के कारण भारत चले आये थे. रोमिला थापर ने माना है कि अशोक के कलाकार तक्षशिला से आये थे जहाँ विदेशी कला-परम्परा जीवित थी. लेकिन इस मत का सबल प्रत्याख्यान भी किया गया है.

वासुदेव अग्रवाल, आर.के. मुखर्जी, एस.पी. गुप्त आदि ने अशोकीय कला को “भारतीय” माना है. एस.पी. गुप्त ने ध्यान दिलाया कि हख़ामनी साम्राज्य के पतन एवं अशोक की कलाकृतियों में अस्सी वर्ष का अंतराल है. इसलिए अशोक के कलाकार ईरानी नहीं हो सकते थे जो हख़ामनी साम्राज्य के पतन के कारण बेकार हो गए थे.

स्वतंत्र स्तम्भ खड़े करने की परम्परा इस देश में विदेश से नहीं आई थी. यह भारत में अत्यंत प्राचीन काल से चली आ रही थी. पौराणिक युग में हिन्दू मंदिरों के सामने ध्वज-स्तम्भ खड़े किये जाते थे. इन स्तम्भों को उस देवता के प्रतीक-चक्र, त्रिशूल आदि से अलंकृत भी करते थे. वैदिक साहित्य में इंद्रध्वजों और यज्ञयूपों के उल्लेख हैं. अशोक के स्तम्भ उन स्तम्भों के अनुवर्ती हैं जो यज्ञस्थल पर यूपों के रूप में स्थापित किये जाते थे.

ईरानी और अशोकीय स्तम्भों में अंतर :-

ईरानी स्तम्भ

  1. वास्तु भवनों के अभिन्न अंग हैं.
  2. स्तम्भों की यष्टियाँ कई पाषाण खंडों से बनी हैं.
  3. स्तम्भों पर वास्तुकार द्वारा निर्मित होने की छाप हैं.
  4. स्तम्भों में आधार पीठ हैं.
  5. स्तम्भों की पशु मूर्तियाँ आधार का काम करती हैं.
  6. स्तम्भों की यष्टियाँ गरारियों से अलंकृत हैं.

अशोकीय स्तम्भ

  1. स्वतंत्र स्मारक/कला कृति है.
  2. स्तम्भों की यष्टियाँ एकाश्मीय हैं.
  3. काष्ठकार की कल्पना का परिणाम लगते हैं.
  4. आधारपीठ रहित हैं.
  5. स्तम्भों में पशु मूर्तियाँ स्वतंत्र कला कृतियाँ हैं.
  6. स्तम्भों की यष्टियाँ सपाट और चिकनी हैं.

सामान्य अध्ययन पेपर – 1

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में “सूरत की फूट” का वर्णन करें. इसके कारणों का वर्णन करते हुए भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन पर इसके प्रभावों का वर्णन करें. (250 words) 

यह सवाल क्यों?

यह सवाल UPSC GS Paper 1 के सिलेबस से प्रत्यक्ष रूप से लिया गया है –

“18वीं सदी के लगभग मध्य से लेकर वर्तमान समय तक का आधुनिक भारतीय इतिहास – महत्त्वपूर्ण घटनाएँ, व्यक्तित्व, विषय”.

सवाल का मूलतत्त्व

सूरत की फूट के विषय में आपको जानकारी रहनी चाहिए. यह फूट क्यों हुआ, किनके बीच हुआ, इन सभी चीजों को आपको एक लघु-कथा के रूप में उत्तर में लिखना होगा. अंत में सूरत फूट का भारत की राजनीति में क्या प्रभाव पड़ा, इसकी चर्चा करना न भूलें.

उत्तर

1905 ई. में कांग्रेस दो दलों में बँट गई – नरम दल और गरम दल. दोनों के बीच सैद्धांतिक मतभेद की खाई धीरे-धीरे चौड़ी होती गई. 1907 ई. तक आते-आते दोनों दलों का मतभेद चरम सीमा तक जा पहुँचा. 1906 ई. में कलकत्ता अधिवेशन के अवसर पर दोनों के बीच तनाव बहुत अधिक बढ़ गया.

1907 ई. के कांग्रेस अधिवेशन के पूर्व लॉर्ड मिन्टो ने नरमदलीय नेताओं के साथ प्रस्तावित सुधारों के सम्बन्ध में बातचीत की थी, जिसमें गरमदलीय और उग्रवादी नेता असंतुष्ट थे. उनका कहना था कि नरमदलीय नेता कलकत्ता अधिवेशन के निर्णय के अनुसार कार्य करने में असमर्थ हैं. उग्रवादी लाला लाजपत राय को अध्यक्ष निर्वाचित करना चाहते थे, परन्तु नरमदलीय नेताओं ने रासबिहारी घोष को अध्यक्ष-पद पर निर्वाचित किया था. उग्रवादियों ने इसका खुलकर विरोध किया. बैठक शुरू होते ही दंगा-फसाद शुरू हो गया.

सूरत अधिवेशन दोनों पक्षों के बीच घोर-मतभेद में समाप्त हुआ. चूँकि उग्रवादी अल्पमत में थे, वे कांग्रेस से अलग हो गये. अगले दिन उदारवादियों ने अपना सम्मलेन किया और कांग्रेस का नया संविधान बना. संविधान में स्पष्तः कहा गया कि कांग्रेस का मार्ग पूर्णतः वैधानिक होगा. बहिष्कार और निष्क्रिय प्रतिरोध का मार्ग, जो उग्रवादियों का मार्ग था, कांग्रेस ने सैदेव के लिए त्याग दिया. कांग्रेस का उद्देश्य तत्कालीन शासन में शनैः शनैः क्रमिक सुधार और औपनिवेशिक स्वराज की प्राप्ति बताया गया. संविधान की पहली धारा में कहा गया था – “राष्ट्रीय महासभा का उद्देश्य भारतवासियों के लिए उस प्रकार की सरकार प्राप्त करना है, जैसी ब्रिटिश साम्राज्य के स्वशासित उपनिवेशों में है, साथ-ही-साथ वह साम्राज्य के अधिकारों और उत्तरदायित्वों में उन्हीं की भाँति भारत को भी हिस्सा दिलाना चाहती है. इन ध्येयों की प्राप्ति का प्रयत्न वैधानिक तरीकों, शासन की वर्तमान प्रणाली में धीरे-धीरे सुधार, राष्ट्रीय एकता तथा जनसेवा की भावना के विकास तथा देश की बौद्धिक, नैतिक, आर्थिक तथा औद्योगिक देनों के संगठन के द्वरा ही होगी.”

सूरत फूट का प्रभाव

इस प्रकार के संविधान से उग्रवादी सहमत नहीं हो सकते थे. अतः कांग्रेस दो दलों में बँट गई – उदारवादी और उग्रवादी. दोनों को क्रमशः नरमदल तथा गरम दल या दक्षिणपन्थ और वामपन्थ की संज्ञा दी गई. उग्रवादी कांग्रेस से पृथक् होकर कार्य करने लगे और इस प्रकार उदारवादियों का कांग्रेस पर एकाधिकार हो गया, जिसके प्रमुख नेता थे – गोखले, फिरोजशाह मेहता, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, प. मदनमोहन मालवीय इत्यादि.

“संसार मंथन” कॉलम का ध्येय है आपको सिविल सेवा मुख्य परीक्षा में सवालों के उत्तर किस प्रकार लिखे जाएँ, उससे अवगत कराना. इस कॉलम के सारे आर्टिकल को इस पेज में संकलित किया जा रहा है >> Sansar Manthan

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