#AdhunikIndia के इस पोस्ट में हम ब्रिटिशकालीन भारत की संस्थाओं और संगठन (important institutions and organisations in British India) के बारे में पढ़ेंगे और सामाजिक सुधार अधिनियमों (social reforms acts) के बारे में भी जानेंगे.
आशा है कि आपने हमारा #AdhunikIndia का यह सीरीज पहले से पढ़ा होगा >> धर्म तथा समाज सुधार आन्दोलन
भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल को आर्थिक शोषण और राजनीतिक उथल-पुथल के काल के रूप में जाना जाता है. परन्तु सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में कंपनी ने कुछ ऐसे भी कार्य किये हैं जो सराहनीय हैं. 1813 तक कंपनी ने भारतीय सामाजिक प्रथाओं, रीति-रिवाजों और परम्पराओं में किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं किया, बल्कि इनके प्रति उसका रवैया सहिष्णु और उदार ही रहा.
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कम्पनी द्वारा अपनाई गई इस अहस्तक्षेप या तटस्थता की नीति कुछ विशिष्ट कारण थे. पहला कारण तो यह था कि ईस्ट इंडिया कंपनी एक व्यापारिक कंपनी थी. इसका उद्देश्य भारत में अपने व्यवसायिक हितों में अधिक से अधिक वृद्धि करते हुए अपने मुनाफे में वृद्धि करना था. अतः सामाजिक मसलों के स्थान पर आर्थिक क्षेत्रों में कंपनी का अधिक रुझान एक स्वाभाविक-सी बात थी. दूसरी बात यह थी कि भारतीय समाज और संस्कृति मूलतः धर्म पर आधारित संस्कृति है. स्पष्ट है कि भारतीय सन्दर्भ में सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों पर हस्तक्षेप का सीधा मतलब हस्तक्षेप ही होता. ऐसी स्थिति में भारतीयों के विरोध की आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता. फिर भी, 1813 ई. के पश्चात् अंग्रेजों की यह सोच बदल गई. अंग्रेज़ अपना प्रशासनिक तंत्र फैलाना और उसे सुदृढ़ रकना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने इस बात की आवश्यकता समझी कि भारतीय समाज के पारम्परिक स्वरूप को बदलना होगा. अंग्रेजों को एक समर्पित नौकशाही चाहिए थी. इसके लिए पारम्परिक शिक्षा तन्त्र को तोड़ना आवश्यक था. दूसरी ओर, देश को ईसाई रंग में ढालना भी आवश्यक समझा गया. इसके लिए धार्मिक मान्यताओं और सामाजिक प्रथाओं पर चोट पहुँचाना एक अनिवार्य कदम था. इन कारणों से अंग्रेज़ों ने देश के सामाजिक और धार्मिक परम्पराओं में रूचि लेना शुरू किया जिससे कि ईसाईकरण और अंग्रेज़ीकरण की नींव मजबूती से डाली जा सके.
अंग्रेजों की इस बदली हुई नीति के कारण एवं उसके प्रति भारतीयों की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप कई सामाजिक आन्दोलन हुए. इन आन्दोलनों का उद्देश्य या तो अंग्रेजी नीति का समर्थन करना था अथवा पारम्परिक मान्यताओं का रक्षण करना था. अतः पूरे देश में कई सामाजिक संगठन उत्पन्न हुए. आपने इन सामाजिक आन्दोलनों के विषय में पिछले पोस्ट में पढ़ा ही होगा >> धर्म एवं सुधार आन्दोलन
सामाजिक-धार्मिक सुधार आन्दोलनों की सीमाएँ
- जहाँ तक प्रचार-प्रसार का सवाल है तो सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों आम जनता तक अपना प्रसार नहीं कर सके. ये शिक्षित उच्च वर्ग एवं मध्य वर्ग तक ही सीमित रहे. इस प्रकार जन-आन्दोलन बन पाने का उनका उद्देश्य अधूरा ही रह गया.
- गाँव व दूर-दराज के क्षेत्र इन आन्दोलनों में अछूते रहे. इसके फलस्वरूप ग्रामीण जनता पर इनका प्रभाव ज्यादा नहीं पड़ा. अतः इन आन्दोलनों को नगरीय मात्र कहना गलत नहीं होगा.
- चूँकि नगरीय क्षेत्रों एवं शिक्षित वर्गों में भी कई कुरीतियाँ विद्यमान रहीं, इसलिए इन आन्दोलनों के सुधार बावजूद इनकी सफलता व्यापक नहीं कही जा सकती.
- कहीं-कहीं धार्मिक-आन्दोलनों की भूमिका प्रतिक्रियावादी रहने के कारण कट्टरता को बढ़ावा मिला और समाज उनका नकारात्मक प्रभाव पड़ा.
सामाजिक-धार्मिक सुधार आन्दोलनों की उपलब्धियाँ
- अपने समाज, इतिहास और परम्पराओं को देखने का एक तार्किक एवं आलोचनात्मक दृष्टिकोण इन्हीं आन्दोलनों ने विकसित किया. इनके फलस्वरूप जड़ पक्षों का निषेध किया गया और इतिहास व समाज के प्रगतिशील पक्षों को स्वीकार किया गया.
- पश्चिम के तथाकथित सांस्कृतिक श्रेष्ठता को चुनौती देते हुए भारतीय संस्कृति के उज्ज्वल पक्षों को सामने रखने में ये आन्दोलन पूरी तरह सफल रहे. इन्होंने भारतवासियों के मन में आत्मगौरव का भाव जगाया और भारतीय अतीत के गौरवशाली पृष्ठों को उजागर किया.
- इन्होंने धर्म को कर्मकांडों व रीतिबद्ध शास्त्रों से मुक्त कर उसकी मानवतावादी एवं उपयोगितावादी व्याख्या प्रस्तुत की. इन आन्दोलनों के धर्म के प्रति एक नए दृष्टिकोण का विकास किया.
- समता, स्वतंत्रता, प्रजातंत्र जैसे प्रगतिशील तत्त्वों की सामाजिक मूल्य के रूप में स्थापना होना इनकी एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है.
- महिलाओं, अछूतों एवं असहाय लोगों की स्थितियों को सुधारकर उन्हें मुख्यधारा से जुड़ने में इन आन्दोलनों ने भरपूर योगदान दिया.
- भारत में शिक्षा के प्रचार-प्रसार में इनकी उल्लेखनीय भूमिका रही.
- राष्ट्रीय चेतना के सूत्रपात में ये आन्दोलन वरदान सिद्ध हुए. ब्रिटिश दासता का व्यापक विरोध भी इसी चेतना का परिणाम था.
ब्रिटिशकालीन भारत की प्रमुख संस्थाएँ एवं संगठन
संस्था/संगठन | संस्थापक | स्थापना वर्ष |
---|---|---|
ब्रिटिश इंडिया एसोसिएशन | राधाकांत देव, देवेन्द्रनाथ टैगोर | 1851 |
मद्रास नेटिव एसोसिएशन | जी.लक्ष्मीनारस चेट्टी | 1852 |
संगत सभा | केशवचन्द्र सेन | 1860 |
विधवा-विवाह संघ | एम.जी. राणाडे/विष्णु शास्त्री पंडित | 1861 |
राधा स्वामी सत्संग | स्वामी शिव दयाल | 1861 |
ईस्ट इंडिया एसोसिएशन (लन्दन) | दादाभाई नौरोजी | 1866 |
प्रार्थना समाज | महादेव गोविन्द रानाडे | 1867 |
दार-उल-उमूल (देवबंद) | मुहम्मद कासिम ननौतवी | 1867 |
भारतीय सुधार संघ | केशवचन्द्र सेन | 1870 |
पूना सार्वजनिक सभा | महादेव गोविन्द रानाडे | 1870 |
वेद समाज | के.के. श्रीधालु नायडू | 1871 |
सत्यशोधक समाज | ज्योतिबा फूले | 1873 |
आर्य समाज | दयानंद सरस्वती | 1875 |
थियोसोफिकल सोसाइटी | कर्नल आल्कॉर (न्यूयॉर्क), मैडल ब्लावत्सकी [भारत में अड्डयार (मद्रास) में 1882 में] | 1875 |
मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज | सैयद अहमद खां | 1875 |
इंडियन एसोसिएशन | सुरेन्द्रनाथ बनर्जी | 1876 |
दक्कन एजुकेशन सोसाइटी | महादेव गोविन्द रानाडे | 1884 |
सेवा सदन | वी.एम. मलबारी | 1885 |
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस | एलन ओक्टेवियन ह्यूम | 1885 |
देव समाज | शिवनारायण अग्निहोत्री | 1887 |
अहमदिया आन्दोलन | मिर्जा गुलाम अहमद | 1889 |
नद्वतुल उलेमा | मौलाना शिबली नूमानी | 1894 |
श्री नारायण धर्म परिपालन योगम | श्रीनायारण गुरु, डॉ. पाल्यू | 1902 |
अभिनव भारत | वी.डी. सावरकर | 1904 |
सर्वेन्ट्स ऑफ़ इंडिया सोसाइटी | गोपालकृष्ण गोखले | 1905 |
भारत स्त्री मंडल | सरलाबाई देवी चौधरानी | 1910 |
ग़दर पार्टी | लाला हरदयाल | 1913 |
जस्टिस पार्टी | सी.एन. मुदलियार, टी.एम. नायर, पी. त्यागराज चेट्टी | 1916 |
होमरूल लीग | बी.जी. तिलक/एनी बेसेंट | 1916 |
साबरमती आश्रम | महात्मा गाँधी | 1916 |
भारत महिला संघ | एनी बेसेंट | 1917 |
विश्व भारती | रविन्द्रनाथ टैगोर | 1918 |
अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC) | एम.एम. जोशी | 1920 |
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया | एम.एन. राय | 1920 |
दलित वर्ग कल्याण संस्थान | भीमराव अम्बेडकर | 1924 |
मोहम्मडन लिटरेरी सोसाइटी | अब्दुल लतीफ़ | 1863 |
हरिजन सेवक संघ | महात्मा गाँधी | 1932 |
फॉरवर्ड ब्लाक | सुभाषचन्द्र बोस | 1939 |
आजाद हिन्द फ़ौज | मोहन सिंह | 1942 |
सामाजिक सुधार अधिनियम
अधिनियम | वर्ष | गवर्नर जनरल/वायसराय | विषय |
नवजात कन्याओं की हत्या संबंधी अधिनियम | 1795 | सर जॉन शोर | नवजात कन्याओं की हत्या पर रोक, इसे साधारण हत्या के बराबर का अपराध घोषित किया गया. |
शिशु-वध प्रतिबंध | 1795-1804 | सर जॉन शोर, लार्ड वेलेजली | शिशु-हत्या पर प्रतिबंध. |
सती-प्रथा प्रतिबंध | 1829 | लॉर्ड विलियम बैंटिक | सतीप्रथा पर पूर्ण प्रतिबंध |
दास-प्रथा पर प्रतिबंध | 1843 | लॉर्ड एलनबरो | दासता को प्रतिबंधित कर दिया गया |
हिन्दू विधवा -पुनर्विवाह | 1856 | लॉर्ड कैनिंग | विधवा-विआह की अनुमति |
सिविल मैरिज एक्ट | 1872 | नार्थब्रुक | अंतर्जातीय विवाह |
एज ऑफ़ कंसेंट एक्ट | 1891 | लैंसडाउन | लड़की के लिएविवाह-योग्य आयु 12 वर्ष निर्धारित |
शारदा अधिनियम | 1930 | लॉर्ड इरविन | लड़की के लिएविवाह-योग्य आयु 14 वर्ष निर्धारित |
हिन्दू महिला सम्पत्ति अधिनियम | 1937 | लॉर्ड लिनलिथगो | हिन्दू महिलाओं को सम्पत्ति का अधिकार |
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