ऊर्जा के स्रोत – नवीकरणीय और अनवीकरणीय (परंपरागत या गैर-पारम्परिक)

Sansar LochanEnergy

आज हम ऊर्जा के स्रोत (sources of energy) के बारे में पढेंगे जिन्हें दो भागों में NCERT किताब ने बाँटा है – नवीकरणीय (परम्परागत) और अनवीकरणीय (गैर-पारम्परिक).

चूंकि आप लोग NCERT के पुजारी हैं इसलिए मैं NCERT में दिए गये विवरण के अनुसार ही आपको समझाऊंगा.

मेरी मानें तो ऊर्जा के स्रोत को कुछ इस तरह विभाजित करना चाहिए था – 

sources of energy

पर NCERT किताब (Chapter 14) में परम्परागत अथवा नवीकरणीय ऊर्जा में पवन ऊर्जा और जलीय ऊर्जा को भी सम्मिलित कर लिया गया है. 

तो चलिए पढ़ते हैं….

मानव ऊर्जा संसाधन उपयोग भोजन पकाने, प्रकाश करने, कृषि कार्य तथा परिवहन आदि अनेक कार्यों में करता है. सामान्य तौर पर समस्त ऊर्जा संसाधनों को दो वर्गों में रखा जा सकता हैः – 

  1. नवीकरणीय (renewable)
  2. अनवीकरणीय (non-renewable)

सभी प्रकार के नवीकरणीय ऊर्जा संसाधन प्राकृतिक गतिविधियों के परिणाम स्वरूप होते हैं, जिससे उनका असीमित उपयोग किया जा सकता है. ये पर्यावरण के लिए अपेक्षाकृत कम हानिकारक होते हैं.

पेट्रोलियम उत्पाद, जैसे-प्राकृतिक गैस, कोयला, डीजल, पेट्रोल तथा नाभिकीय ऊर्जा अनवीकरणीय ऊर्जा संसाधन है.

विश्व का जीवाश्म ईंधन (fossil fuel)  तथा यूरेनियम (नाभिकीय ऊर्जा का प्रमुख स्रोत) का भंडार सीमित है और धीरे-धीरे यह अपनी समाप्ति की ओर अग्रसर है. 

Table of Contents

पारम्परिक ऊर्जा के स्रोत (Conventional Energy Sources)

जीवाश्म ऊर्जा

मानव द्वारा कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस आदि का ऊर्जा स्रोत कहा जाता है. इन ऊर्जा स्रोतों का निर्माण वनस्पतियों और जीवों के भूमि में दबने के कारण हुआ है, इसलिए इन्हें जीवाश्म ऊर्जा स्रोत भी कहा जाता है. ये ईंधन भूगर्भ में करोड़ों वर्षों में बनते हैं. इनकी उपलब्धता सीमित स्थानों तक ही है. इन जीवाश्म ईंधनों को भूगर्भ से खनन के द्वारा प्राप्त किया जाता है. इनकी सीमित मात्रा और अन्धाधुंध उपयोग के कारण ये धीरे-धीरे समाप्ति की ओर अग्रसर हैं. 

ये पारम्परिक ऊर्जा स्रोत (जीवाश्म ईंधन) ऊर्जा के उत्तम गुणों से युक्त हैं किन्तु इनके उपयोग में कई कठिनाइयाँ हैं:-

  • ये नवीकरणीय (renewable) नहीं हैं, अर्थात् इनका उपयोग बार-बार नहीं किया जा सकता. इनकी मात्रा सीमित है.
  •  इनकी मात्रा समाप्तप्राय होने के कारण इनके मूल्य में तीव्र गति से वृद्धि हो रही है. परिवहन की कठिनाईयों के कारण भी इनकी उपलब्धता दिनोदिन कठिन होती जा रही है. 
  • इनके उपयोग से पर्यावरण प्रदूषण होता है. 

पारम्परिक ऊर्जा स्रोत्रों से प्राप्त ईंधन (ऊर्जा) का उपयोग लम्बे समय से दिन प्रतिदिन के कार्यों के निष्पादन के लिए किया जाता रहा है. चूँकि ये प्राकृतिक संसाधन अनवीकरणीय हैं अतः इनका अंधाधुध उपयोग निकट भविष्य में ही हमें इन संसाधनों से विहीन कर देगा. ऊर्जा प्राप्ति के जीवाश्म ईंधन के उपयोग से अनेक प्रकार की गैसें व कणीय पदार्थ उत्सर्जित होते हैं जो पर्यावरण में प्रदूषण उत्पन्न करते हैं. वैश्विक तापमान में वृद्धि होना, वायु प्रदूषण, अम्ल वर्षा, ते रिसाव आदि जीवाश्म ईंधन के उपयोग के दुष्परिणाम हैं, जो पर्यावरण के लिए क्षतिकारक हैं.  

हमें अनवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों के उपयोग को सीमित कर देना चाहिए तथा उनके स्थान पर नवीकरणीय अर्थात् असीमित ऊर्जा संसाधनों का उपयोग करना चाहिए. 

जलीय ऊर्जा  

यद्यपि जल के वेग को रोककर बाँध निर्माण से कई पारिस्थितिक समस्याएँ, जैसे जल जीवों और वनस्पतियों के आवास का जल में विलीन हो जाना आदि आती हैं किन्तु ऊर्जा की बढ़ती हुई माँग को देखते हुए जल शक्ति को वैकल्पिक ऊर्जा के रूप में प्रयुक्त किताप शक्ति संयंत्रों (Thermal Power Plants) से उत्पन्न विद्युत ऊर्जा की तुलना में जल शक्ति (Hydro Power) से उत्पन्न विद्युत बहुत सस्ती होती है. विश्व की कुल विद्युत ऊर्जा में उत्पादन का लगभग 25% हिस्सा जलशक्ति द्वारा उत्पादित किया जाता है. ऊँचे स्थान से गिरने वाले जल को बाँधों की तलहटी में स्थित विद्युत उत्पादन संयंत्र (टरबाइन) की सहायता से विद्युत ऊर्जा में रूपान्तरित किया जाता है. जब पर्वतीय क्षेत्रों में बाँधों का निर्माण करके प्रवाहमान नदियों, झरनों आदि का जल रोक दिया जाता है तो वहाँ जल का विशाल भंडार संचित हो जाता है. जल के वेग को नियन्त्रित करके उसकी शक्ति का उपयोग विद्युत ऊर्जा रूपान्तरण के लिए किया जाता है. या जाना समीचीन है.

पवन ऊर्जा  

अनेक संस्थानों ने ऐसी पवनचक्कियों का निर्माण किया है जो मात्रा 10 किलोमीटर प्रतिघंटा के वेग से चलनेवाली पवन गति पर भी कार्य कर रही है.ये स्थान हैं तटीय तमिलनाडु, कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान और कुछ पहाड़ी क्षेत्रा. भारत में अनेक स्थान ऐसे हैं जहाँ पवन चक्कियों का प्रयोग पानी पम्प कर सिंचाई करने अथवा विद्युत उत्पन्न करने में किया जा रहा है. इसके कई लाभ हैं, जैसे –  रख-रखाव पर अत्यन्त कम खर्च आना, ऊर्जा रूपान्तरण के साधन का सरल होना, ईंधन खर्च अत्यन्त कम आना, प्रदूषण मुक्त होना और सबसे बढ़कर ये चक्कियाँ धरातल पर उपलब्ध रहती हैं. भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में पवन चक्कियाँ सस्ते एवं अपारम्परिक वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों के रूप में अत्यन्त लोकप्रिय हो रही हैं. पंखे घूमने के साथ-साथ उससे जुड़े पम्पिंग पिस्टन एवं सिलिन्डर कार्य करने लगते हैं, जिनसे विद्युत उत्पादन होता है. इस विद्युत से स्थानीय लघु उद्योग एवं अन्य कार्य किए जा सकते हैं. वायु वेग के कारण पंखे घूमते हैं. इसमें भूमि में एक लगभग 6 मीटर का स्तम्भ गड़ा होता है जिसके उपरी भाग में पंखे लगे होते हैं. पवन वेग से ऊर्जा प्राप्त करने का सबसे प्रभावी साधन है – पवन चक्की. पवन वेग से ऊर्जा देने वाली युक्तियाँ केवल उन्हीं स्थानों पर प्रयुक्त की जा सकती है जहाँ वायु का प्रवाह निरन्तर और तीव्र हो. ऐसा द्वीपों, तटीय क्षेत्रों तथा पर्वतीय क्षेत्रों में विशेष रूप से संभव है. वायु वेग का यह उपयोग अब अत्यन्त सीमित अथवा विलुप्त हो चुका है. प्राचीन काल में वायुवेग का उपयोग नाविक अपनी नौकाओं में पाल लगाकर नाव की बढ़ाने के लिए, तथा कृषक भूसे को अनाज के दानों से अलग करने के लिए करते थे. बहने वाली वायु में वेग होता है जो समय एवं स्थान के अनुसार कम या अधिक होता रहता है. वायुमंडल में वायु का प्रवाह एक प्राकृतिक घटना है.

अधिक ऊर्जा प्राप्त करने के लिए एक साथ कई पवन चक्कियों की स्थापना भी सम्भव है.चूँकि ग्रीष्म ऋतु में देश के अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा पूरे उत्तर प्रदेश में पवन गति सबसे मंद होती है, अतः धीमी गति से चलनेवाले पवनचक्की का विकास लाभकारी सिद्ध हुआ है. उत्तर प्रदेश में अनेक क्षेत्रों में पवनचक्कियों से वृहद् पैमाने पर सिंचाई का कार्य किया जा रहा है. इनका उपयोग वृहद् क्षेत्रों में पानी पम्प करने तथा विद्युत उत्पादन में किया जा सकता है.


अपारम्परिक / वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोत (Non-Conventional Energy Sources)

सौर ऊर्जा (Solar Energy)

सौर ऊर्जा को प्रत्यक्ष रूप से उष्मा प्राप्ति के लिए प्रयुक्त किया जाता रहा है किन्तु इस विशाल ऊर्जा भंडार का मानव हित में उपयोग किया जाना समीचीन है. इसका प्रत्यक्ष उपयोग मानव आदिकाल से पफसल, घास, अनाज, मछली, मिर्च एवं अन्य उत्पादों को सुखाने के लिए करता चला आया है. सूर्य से सीधे प्राप्त होने वाली ऊर्जा विकिरण ऊर्जा (radiant energy) कहलाती है.  सूर्य द्वारा प्राप्त ऊर्जा का उपयोग प्रत्यक्ष तथा परोक्ष दोनों रूपों में किया जाता है. सूर्य ऊर्जा का मूल केन्द्र और ऊर्जा का अक्षय भंडार है.

इस प्रकार सौर प्रकाश का वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत के रूप में उपयोग करने हेतु दो प्रकार से रूपान्तरण किया जा सकता हैः- वैकल्पिक रूप में इस ऊर्जा को ताप एवं विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित कर दिया जाता है.

  1. उष्मीय रूपान्तरण
  2. विद्युतीय रूपान्तरण.

सौर प्रकाश का ऊष्मीय रूपान्तरण या सौर ताप  

उष्मीय रूपान्तरण के दो प्रकार के उपयोग हैं :- इन संग्राहकों द्वारा एकत्रित ताप/ऊष्मा से पानी गर्म किया जा सकता है. सौर संग्राहकों के माध्यम से सूर्य के प्रकाश का उष्मामान बढ़ा कर उसका उष्मीय रूपान्तरण किया जाता है.

  1. कम तापक्रम वाली ऊष्मा प्रणाली का उपयोग पानी गर्म करने तथा पफसलों को सुखाने में किया जाता है.
  2. उच्च तापक्रम वाली उष्मा प्रणाली का उपयोग पानी को उच्च तापक्रम पर गर्म करके विद्युत उत्पादन के लिए किया जाता है.

सूर्य के इसी तापीय विकिरण प्रभाव का उपयोग संग्राहक संयंत्रों के माध्यम से उष्मा प्राप्त करने के लिए किया जाता है. सूर्य के असीमित ऊर्जा भंडार पर आधारित ऊर्जा उत्पन्न करने वाले यंत्र –   शीशे की प्लेटों को कुचालक प्लेट के बीच पानी अथवा वायु रहती है जो शीशे की प्लेट द्वारा अवशोषित ताप से गर्म होती रहती है. सामान्यतः सौर संग्राहकों में सूर्य की ऊर्जा प्राप्त करने के लिए शीशे की प्लेटें लगी रहती हैं और उसके नीचे काले रंग से रंगी हुई ताप की कुचालक प्लेट लगी रहती है. सूर्य का प्रकाश वस्तुओं के तापमान में वृद्धि कर देता है, यह तथ्य सर्वविदित है अर्थात् धूप में रखी वस्तुएँ गर्म हो जाती हैं.

सोलर वाटर हीटर

इस प्रणाली के कारण पानी एक निश्चित तापक्रम पर गरम करके प्रयोग में लाया जा सकता है. घरेलू वाटर हीटर के अतिरिक्त औद्योगिक कार्यों के लिए विकसित वाटर हीटर में ताप नियंत्रण प्रणाली भी लगी रहती है.  इस संयंत्र को एक बार क्रय कर लेने के बाद विद्युत मूल्य नगण्य होता है. इसलिए लम्बे समय तक चलने के कारण अन्य विद्युत संयंत्रों की अपेक्षा सस्ता पड़ता है. 100  लीटर क्षमता वाले सोलर वाटर हीटर का मूल्य लगभग 9000.00 रुपये होता है. इसमें विद्युत संचरित प्रणाली का मूल्य सम्मिलित है. वर्षाकाल में इस प्रणाली में विद्युत संचरित प्रणाली का भी उपयोग किया जा सकता है. चूँकि पानी की टंकी भी उष्मा अवरोधित होती है, इसीलिए 50 से 60 डिग्री सेन्टीग्रेड तक गर्म पानी 24 घंटे उपलब्ध रहता है. टंकी से पानी उष्मा अवरोधित पाइपों के सहारे स्नान गृह तक लाया जा सकता है. टंकी में जमा पानी को घर में नहाने, बर्तन, सापफ करने, कपड़े साफ करने आदि के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है. कलेक्टर से पानी गर्म होता है और टंकी में जमा होता जाता है. इस संयंत्र में एक ताप संग्राहक एवं टंकी होती है. यह घरेलू एवं औद्योगिक आवश्यकताओं के लिए पानी गरम करने का आदर्श एवं प्रभावशाली संयंत्र हैं. घरेलू उपयोग के लिए इसे भवन की छत पर स्थापित किया जाता है.

सोलर सिस्टम  

इस जल का उपयोग बैटरी में किया जाता है. पुनः वाष्प ठंडा होकर संयंत्र में लगे पाइप के सहारे लगे स्टील जार में आसुत जल के रूप में इक्ट्ठा होता रहता है. सौर ताप के कारण अन्दर का जल वाष्प बनता है.  इस संयंत्र के अन्दर पानी डाल दिया जाता है. इस संयंत्र द्वारा आसुत जल (डिस्टिल वाटर) प्राप्त किया जाता है.

सोलर ड्रायर  

अनाज मण्डियों एवं कृषकों के लिए यह महत्त्वपूर्ण यंत्र है. अनाज को पक्षी, कीड़े नुकसान नहीं करते तथा गन्दगी धूल आदि नहीं पड़ती.  इसमें अनाज बहुत जल्द सूखता है. कृषि उत्पादों तथा मसाले आदि को सुखाने के लिए सौर ड्रायर बहुत उपयोग संयंत्र है.

लकड़ी का शुष्कन यंत्र  

इसकी कीमत लगभग 10 लाख रूपये है लेकिन ऊर्जा व्यय न होने के कारण इसकी लम्बी अवधि तक उपयोग सस्ता ही रहेगा. अब तक कोयले या विद्युत ऊर्जा पर आधारित लकड़ी शुष्कन यंत्र उपयोग में लाया जाता है.  इस संयंत्र की सहायता से लकड़ी समान रूप से सूखती है.  लकड़ी को खुला छोड़ देने पर वह न समान रूप से और न शीघ्र ही सूखती है. सौर यंत्र काष्ठ उद्योग के लिए उपयोगी है. पेड़ से कटी लकड़ी इससे सुखाई जा सकती है.

सोलर कूकर  

यदि इससे बने भोजन का हिसाब लकड़ी व गैस से बने भोजन से करें तो एक वर्ष में व्यय होने वाले ईंधन के व्यय से खरीदा जा सकता है. इनमें बने भोजन के विटामिन, प्रोटीन आदि पोषक तत्व नष्ट नहीं होते.  इसमें रखे भोजन में धूल या गन्दगी नहीं पड़ सकती. इसमें रखे भोजन को गर्म करने या रखने के लिए इसका उपयोग किया जा सकता है. भोजन को गर्म करने या रखने के लिए इसका उपयोग किया जाता सकता है. इनमें बने भोजन में ईंधन व्यय नहीं होता और भोजन के जलने का डर भी नहीं होता. सौर कूकर में दाल, सब्जी, माँस, खीर आदि दो से ढाई घंटों में बन जाती है. गर्मी बढ़ने से खाना उबल जाता है. इसमें नीचे की तली और काला लेप होता है. सोलर कूकर धातु का बना होता है.

सौर प्रकाश का विद्युतीय रूपान्तरण या सौर विद्युत

सौर सेलों द्वारा प्रकाश को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित किया जाता है. सौर ऊर्जा के इस रूपान्तरण कोसौर सेलों द्वारा प्रकाश को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित किया जाता है. जब सूर्य की किरणें सौर सेलों के कुछ खास तरह के सेमी कण्डक्टर पर पड़ती हैं, तो बैटरी के अन्दर के पर्दे में आयनीकरण पैदा होता है. आयनीकरण के ऋणात्मक एवं धनात्मक आवेशों का समुचित उपयोग कर विद्युत उत्पादन किया जाता है. सौर प्रकाश को विद्युत में परिवर्तित करने के लिए सौर सेलों का निर्माण किया गया है. इन सेलों में सिलिकन या गैलियम आरसैनाइट के क्रिस्टल होते हैं.  सौर प्रकाश वोल्टीय ऊर्जा रूपान्तरण कहा जाता है.

राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला, नई दिल्ली, सेन्ट्रल इलेक्ट्रानिक्स लिमिटेड, साहिबाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत हेवी इलेक्ट्रॉनिक्स डेवलेपमेण्ट्स भी सौर प्रकार वोलटीय विधियों का विकास कर रहे हैं. भारत सरकार का अपरम्परागत स्रोत विभाग सौर प्रकाश वोल्टीय युक्तियों के विकास हेतु प्रयास कर रहा है. सौर सेलों एवं बैटरी के माध्यम से सिंचाई, पेयजल, घरेलू एवं मार्गों पर प्रकाश तथा लघु उद्योगों को संचालित किया जा सकता है. हमारे देश में दूर-दराज के क्षेत्रों के लिए सौर सेलों का पर्याप्त उपयोग रहेगा. संचित विद्युत का उपयोग रात्रिकाल या दिन में बादल रहने पर किया जाता है. सौर सेल विद्युत का संग्रह नहीं करता, इसलिए स्टोरेज बैटरी में विद्युत का संचय कर लिया जाता है. कैलकुलेटरों एवं घड़ियों में अक्रिस्टलीय सेलों का उपयोग किया जा रहा है. इन सेलों का मूल्य भी कम होता है तथा इनका स्थलीय उपयोग किया जा रहा है. अब अक्रिस्टलीय सिलिकन का उपयोग कर सौर सेल निर्मित की जा रही है. सौर सेलों हेतु सिलिकन को क्रिस्टलीय रूप में प्राप्त करना ही अत्यन्त कठिन है तथा उसे क्रिस्टलीय रूप में परिवर्तित करना बहुत ही महँगा है. इसलिए सौर सेलों का मूल्य अधिक होता है. पिछले वर्षों सौर सेलों की आवश्यकता कृत्रिम उपग्रहों में विद्युत चालित उपकरणों को चलाने के लिए हुई. कृत्रिम उपग्रहों में बिजली चालित यंत्रों के लिए ऊर्जा सौर सेलों से ही प्राप्त होती है.

सोलर फोटो बोल्टाइक संयंत्र

यहाँ कुछ महत्त्वूपर्ण एवं उपयोगी सोलर फोटो बोल्टाइक संयंत्रों का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा हैः-

सोलर पम्प

विद्युत से मोटर पम्प चलाया जाता है जो कुँओं से पानी निकालता है. इस पैनल से डी.सी. विद्युत उत्पादित होती है.  सोलर पम्प में एक फोटोबोल्टाइक पैनल होता है. इनसे पेयजल एवं दो-ढाई एकड़ जमीन की सिंचाई भी सम्भव है. जिन क्षेत्रों में विद्युतउत्पादन या ऊर्जा के अन्य साधनों का पहुँचना कठिन है, वहाँ सोलर पम्प बहुत उपयोगी सिद्ध हुए हैं.

सोलर डी.सी.  

विद्युत उसी बैटरी में संचित हो जाती है. इस बैटरी की सहायता से 24 घंटे टी.वी. प्रसारण देखे जा सकते हें.इसमें एक फोटो वोल्टाइक पैनल होता है जो सूर्य की रोशनी से विद्युत पैदा करता है.

स्ट्रीट लाइटिंग  

सूर्य का प्रकाश कम होते ही इस यंत्र में लगी 200 वाट की ट्यूब लाइट स्वयं ही जल उठती है. यह विद्युत पैनल के साथ लगी बैटरी में संचित हो जाता है.  इसमें फोटो वोल्टाइक पैनल लगा रहता है जो सूर्य के प्रकाश से विद्युत बनाता है. इस संयंत्र से रात में प्रकाश उत्पन्न किया जाता है.

बायोगैस

इस तकनीक में बायोमास को सड़ाकर उससेइस बायोमास को तकनीकी ढंग से प्रयुक्त करके बायोगैस उत्पन्न की जा सकती है जिससे ताप एवं यांत्रिक ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है. इस बायोमास को या तो फेंक दिया जाता है जिससे गन्दगी और प्रदूषण बढ़ता है अथवा गलत ढंग से जला कर उष्मा प्राप्त की जाती है. गोबर तथा उपर्युक्त कृषि अवशेषों के दहन से प्रति वर्ष लगभग 2 लाख टन नाइट्रोजन उर्वरक की हानि होती है. इसके अतिरिक्त लगभग 500 लाख टन घास-फूस, पुआल आदि भी जला दिया जाता है. हमारे देश में ईंधन की आवश्यकता की पूर्ति के लिए लगभग 800 लाख मेट्रिक टन से अधिक गोबर को जला दिया जाता है. वनस्पति एवं वनस्पति अवशेष, नगरीय कूड़ा करकट, पशु एवं मानव मल, जलीय वनस्पतियों एवं प्राणियों आदि की जैविक क्रियाओं द्वारा उत्पादित सभी ज्वलनशील पदार्थ जैवभार (biomass) कहे जाते हैं.  मीथेन गैस उत्पन्न की जाती है इस प्रकार हमारे देश में विशाल बायोमास का निरन्तर दुरूपयोग हो रहा है. यदि इन्हीं पदार्थों का समुचित उपयोग किया जाय और वैज्ञानिक तकनीक प्रयुक्त की जाय तो अनुमानतः 70 घनमीटर मीथेन गैस प्राप्त होगी जो लगभग 16 करोड़ टन लकड़ी के बराबर उष्मा प्रदान करेगी. इस गैस का उपयोग भोजन बनाने, बल्ब जलाने, पम्पपिंग सेट चलाने आदि के लिए किया जाता है और गैस निकलने के पश्चात् बचा हुआ पदार्थ कृषि कार्यों में उर्वरक के रूप में प्रयुक्त किया जाता है. जो नीली लौ के साथ जलती है.

बायोमास का समुचित उपयोग कर बायोगैस प्राप्त करने के लिए दो प्रकार के संयंत्रों का विकास किया गया हैः-

गोबर गैस संयंत्र (Dung Gas Plant)

संयंत्र द्वारा उत्पादित गैस को भोजन पकाने के लिए प्रयुक्त किया जाता है, साथ ही इसे विद्युत-शक्ति के रूप में भी परिवर्तित किया जाता है जिससे सिंचाई एवं कृषि कार्य किये जा सकते हैं.गैस बने के बाद बचा पदार्थ कम्पोस्ट या अन्य खादों की तुलना में कहीं अच्छे उर्वरक के रूप में कृषि में प्रयुक्त किया जा सकता है. हमारे देश में प्रति वर्ष लगभग 3065 लाख मीट्रिक टन पशु गोबर होता है जो 18.84 लाख घनमीटर मीथेन उत्पादन के लिए पर्याप्त है. इस संयंत्र से मीथेन गैस प्राप्त करने का प्रमुख साधन गोबर है.

बायो गैस संयंत्र (Bio Gas Plant)

बायोगैस साफ-सुथरा ईंधन है जो अन्य दहनशील ऊर्जा स्रोतों की तुलना में कम प्रदूषण पैदा करता है. इसका भंडारण और परिवहन आसान होता है.समुद्री शैवालों की खेती करके भी बायोगैस प्राप्त की जा सकती है. सूखी जलकुम्भी के प्रति किलोग्राम से 374 लीटर बायोगैस प्राप्त की जा सकती है. जलकुम्भी के पौधे मात्र आठ महीनों में 10 से बढ़कर 6 लाख हो जाते हैं. यह मीथेन का बड़ा भंडार है, इसकी वृद्धि भी अत्यन्त तीव्र गति से होती है और यह जल को शुद्ध करती है इसलिए इसे भी नगरीय मल-जल युक्त तालाबों में उगाना उपयोगी होगा. बायोगैस उत्पादन के लिए जलकुम्भी अत्यन्त उपयोगी है. ऐसे जल में ये शैवाल अत्यन्त तेजी से बढ़ते हैं, साथ ही ये जल को शुद्ध भी करते हैं. वनस्पतिक अवशेषों में धान की भूसी, पुआल, मूंगफली के छिलके, गन्ने की खोई, पटसन के डंडे, केले के छिलके तथा तने, नारियल-अवशेष, कपास के डंठल, मक्के का मध्यदंड, खरपतवार आदि का उपयोग किया जा सकता है. बायोगैस संयत्र में नीलहरित शैवालों को नगरीय मल-जल युक्त तालाबों में उगाया जा सकता है. आजकल गोबर गैस संयंत्रों के स्थान पर बायोगैस संयंत्रों का प्रचलन अधिक बढ़ा है क्योंकि इसमें गोबर के साथ-साथ मानव मल-मूत्र तथा अन्य वनस्पति अवशेषों का उपयोग भी मीथेन की प्राप्ति के लिए किया जाता है.

गोबर-धन योजना

पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय ने गोबर (गैल्वनाइजिंग आर्गेनिक बायो-एग्रो रिसोर्सेज) धन योजना शुरू की है. इस योजना को स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) के हिस्से के रूप में कार्यान्वित किया जा रहा है.

ज्वारीय ऊर्जा  

यह अनुमान लगाया जाता है किभारत की तट रेखा 61 सौ किलोमिटर लम्बी है, किन्तु बहुत कम ऐसे स्थान हैं जहाँ ज्वार इतनी होती हो कि उससे ऊर्जा उत्पन्न किया जा सके. इसकी एक अन्य बड़ी कमी यह है कि ज्वार के आने पर ही विद्युत उत्पादन किया जा सकता है. ज्वार चालित स्टेशनों की निर्माण लागत ताप विद्युत स्टेशन की अपेक्षा दोगुनी होती है. ज्वारीय ऊर्जा समुद्र से प्राप्त एक अन्य प्रकार की ऊर्जा है जिसमें समुद्री जल स्तर के उतार-चढ़ाव (लहरों) के उच्चतम व निम्नतम ज्वार बिन्दु के मध्य जल स्तर के अन्तर को विद्युत उत्पादन के लिए उपयोग किया जाता है.  काम्बे की खाड़ी तथा कच्छ की खाड़ी  एक अन्यसे विद्युत उत्पादन किया जा सकता है.  सम्भावित स्थान सुन्दरवन  ज्वार द्वारा उत्पादित विद्युत अत्यन्त अल्प होगी और इसका स्थानीय उपयोग ही हो सकता है.भी है जो पश्चिम बंगाल में है.

हाइड्रोजन

हाइड्रोजन में ऊर्जा भी अपेक्षाकृत अधिक होती है.हाइड्रोजन को ईंधन के रूप में प्रयुक्त करने का सबसे बड़ा लाभ पर्यावरण में बढ़ती हुई कार्बनडाई-ऑक्साइड की मात्रा को रोकने में होगा, क्योंकि जब हाइड्रोजन का दहन होगा तो केवल उष्मा और पानी ही निकलेगा. रेगिस्तानों, अनुपयोगी जलाशयों तथा समुद्रों का सार्थक उपयोग होने लगेगा और खेतों को जैविक उर्वरक प्राप्त होने लगेंगे. यह सस्ती, नवकरणीय एवं प्रदूषण मुक्त होगी. ऊर्जा के इस स्रोत के उपयोग से हम नए ऊर्जा युग में पहुँच जाएँगे. हाइड्रोजन की प्राप्ति रद्दी कागज तथा लकड़ी से भी की जा सकती है. जल के अपघटन से भी हाइड्रोजन प्राप्त की जा सकती है किन्तु इस अपघटन के लिए विद्युत ऊर्जा की आवश्यकता पड़ेगी. वर्तमान में हाइड्रोजन प्राप्त करने का सबसे बड़ा प्राकृतिक स्रोत मीथेन गैस है. हाइड्रोजन आयन और मुक्त इलेक्ट्रॉनों के संयोग से हाइड्रोजन अणु बनते हैं. इनके निर्माण में हाइड्रोजिनेट नामक एन्जाइम की भूमिका महत्वपूर्ण होती है. आणविक हाइड्रोजन जीवित पौधों से प्राप्त की जा सकती है. वनस्पतियों में प्रकाश संश्लेषण के समय पौधे ऊर्जा को ग्रहण करते हैं और अपने अन्दर विद्यमान जल को आाविक ऑक्सीजन, हाइड्रोजन आयन तथा मुक्त इलेक्ट्रॉनों में विखन्डित कर देते हैं. वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत के रूप में हाइड्रोजन वनस्पतियों से प्राप्त की जा सकती है.

भू-तापीय ऊर्जा  

लद्दाख में प्यूगा नामक स्थान पर एक प्रायोगिक परीक्षण वृत्त (Test Ring) की स्थापना भू-तापीय अंतराल को गर्म करने की जाँच करने के लिए की गई है.विभिन्न अध्ययनों के अनुसार भूतापीय ऊर्जा का उपयोग जम्मू व कश्मीर तथा हिमाचल प्रदेश में गर्म करने के लिए किया जा सकता है. भू-तापीय ऊर्जा का सम्बन्ध पृथ्वी के धरातल की उष्मा की मात्रा से है, जो वृहद् मात्रा में ज्वालामुखी के रूप में उपलब्ध है. तप्त जल कुण्ड या भाप अथवा गर्म झरनों जैसे उपर की तरफ प्रवाहित होने वाले तप्त भूगर्भ जल का उपयोग टर्बाइन चलाने एवं भू-तापीय शक्ति संयंत्रा में विद्युत उत्पादन के लिए किया जा सकता है.

स्पष्ट है कि तेजी से समाप्त हो रहे ऊर्जा के संसाधनों की समस्या को विज्ञान एवं तकनीक के उचित प्रयोग से हल किया जा सकता है.

सन् 1950 के दशक में जलाने की लकड़ी का गम्भीर-संकट खड़ा हो गया था, जिसके फलस्वरूप लोगों ने कोयले का उपयोग वैकल्पिक ईंधन के तौर पर करना शुरू कर दिया. इसके फलस्वरूप अनेक तकनीकी विकास परिलक्षित हुए, जिससे औद्योगिक क्रांति घटित हुई और आज एक बार फिर सम्पूर्ण विश्व ऊर्जा संकट के दौर से गुजर रहा है.

एल्कोहल

 इस प्रकार यह सस्ता और कम प्रदूषण उत्पन्न करने वाला ऊर्जा स्रोत है.इस मिश्रण का अनुपात 1:3 (एक भाग इथेनाल और तीन भाग पेट्रोल) रखने से ईंधन की खपत 5% कम हुई और कार्बन मोनो-ऑक्साइड भी 30%-40% कम निकली. वहाँ पेट्रोल के साथ एल्कोहल मिलाकर मोटर वाहनों को चलाया जाता है. ब्राजील में गन्ने से प्राप्त एल्कोहल को ईंधन के रूप में प्रयुक्त किया जाता है. चीनी उद्योग के अपशिष्ट से बनी एल्कोहल अत्यन्त ही सस्ती होती है. चीनी उद्योग के शीरे तथा बेकार पदार्थों जैसे लकड़ी का बुरादा, आलू जैसी स्टार्चयुक्त फसलें आदि से भी एल्कोहल प्राप्त किया जा सकता है. एक टन कसावा से लगभग 150 लीटर एल्कोहल प्राप्त किया जा सकता है. इसके शुष्क भाग में 90% स्टार्च होता है. इसे सुखाकर लम्बे समय तक रखा जा सकता है. कसावा ऐसी वनस्पति है जो कम उर्वर-भूमि में भी उग सकती है और इसे मौसमी प्रतिककूलताओं को सहने की भी शक्ति होती है . इनकी सिंचाई और देखरेख की पर्याप्त जरूरत होती है. औद्योगिक स्तर पर एल्कोहल उत्पादन के लिए तीन फसलें महत्त्वपूर्ण हैं – गन्ना, चुकन्दर और कसावा. गन्ना और चुकन्दर चीनी उद्योग के लिए महत्त्वपूर्ण है. स्टार्च से किण्वन प्रक्रिया द्वारा एल्कोहल तैयार किया जाता है. द्रव ईंधन के रूप में प्राप्त अल्कोहल का उपयोग वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत के रूप में किया जा सकता है.

इथेनाल सम्मिश्रण कायर्क्रम

इथेनाल का उत्पादन गन्ना, मक्का, गेहूँ आदि से किया जा सकता है, जिसमें उच्च स्टार्च की मात्रा होती है. भारत में, इथेनाल का उत्पादन मुख्य रूप से किण्वन प्रक्रिया द्वारा गन्ना गुड़ से किया जाता है. विभिन्न मिश्रणों को बनाने के लिए इथेनाल को गैसोलीन के साथ मिलाया जा सकता है. चूंकि इथेनाल अणु में आक्सीजन होता है, यह इंजन को ईंधन को पूरी तरह से दहन करने की अनुमति देता है, जिसके परिणामस्वरूप कम उत्सर्जन होता है और जिससे पर्यावरण प्रदूषण की घटना कम होती है. चूंकि इथेनाल का उत्पादन पौधों से होता है जो सूर्य की शक्ति का दोहन करते हैं, इसलिए इथेनॉल को अक्षय ईंधन के रूप में भी माना जाता है.

EBP कार्यक्रम जनवरी, 2003 में शुरू किया गया था. इस कार्यक्रम में वैकल्पिक और पर्यावरण के अनुकूल ईंधन के उपयोग को बढ़ावा देने और ऊर्जा आवश्यकताओं के लिए आयात निर्भरता को कम करने की मांग की गई थी.

ईबीपी कार्यक्रम का कार्यान्वयन

2001 के दौरान, इथेनाल मिश्रित पेट्रोल पर पायलट परियोजनाएं 3 स्थानों पर शुरू हुईं अर्थात् मिराज, मनमाड (महाराष्ट्र) और उत्तर प्रदेश में आंवला / बरेली. भारत सरकार ने जनवरी, 2003 में 5% इथेनाल मिश्रित पेट्रोल की आपूर्ति के लिए इथेनाल मिश्रित पेट्रोल (EBP) कार्यक्रम शुरू करने का निर्णय लिया. इसके बाद, जनवरी, 2003 में 9 राज्यों यानी महाराष्ट्र, गुजरात, गोवा, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और 4 केंद्र शासित प्रदेशों में इथेनाल मिश्रित मिश्रित पेट्रोल कार्यक्रम शुरू किया गया.

प्राकृतिक संसाधन

पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय ने 20 सितम्बर, 2006 की अपनी अधिसूचना को रद्द कर दिया, तेल विपणन कंपनियों (OMC) को अधिसूचित 20 राज्यों और 4 में भारतीय मानक ब्यूरो के विनिर्देशों के अनुसार वाणिज्यिक व्यवहार्यता के लिए 5% इथेनॉल मिश्रित पेट्रोल बेचने के लिए निर्देशित किया. 1 नवंबर, 2006 से प्रभावी संघ राज्य क्षेत्रा. अतिरिक्त 10 राज्यों में दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, चंडीगढ़, केरल, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, बिहार और झारखंड शामिल हैं. हालांकि, कार्यक्रम के तहत उत्तर-पूर्वी राज्यों, जम्मू और कश्मीर, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और लक्षद्वीप द्वीप समूह को कवर नहीं किया गया है.

लहरें या सागरीय तरंगों से ऊर्जा  

संप्रति लहरचालित जेनरेटर (WPG) काफी कम क्षमता के हैं और उनके लगभग 35 वाट विद्युत ही प्राप्त की जा सकती है.मद्रास स्थित पोर्ट ट्रस्ट इंजिनियर ने  एक युक्ति का विकास किया था, जिसके द्वारा लहरों से विद्युत उत्पन्न की जाती है. समुद्री लहरों का दोहन करने की दिशा में भारत में अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य हो रहे हैं. समुद्र तट के एक किमी. क्षेत्रा पर थपेड़े मारती लहरों से अनुमानित 40 मेगावाट विद्युत उत्पन्न की जा सकती है. वायु प्रवाह से उत्पन्न समुद्री तरंगों में टर्बाइन चलाने एवं विद्युत उत्पादन की क्षमता होती है.

चुम्बकीय द्रवगतिकी  

नीलजल गैस का उपोयोग ईंधन के रूप में हाइड्रोकार्बन तथा ऑक्सीजन युक्त योगिकों के संश्लेषण में किया जाता है.नीलजल गैस व कार्बन मोनोआक्साइड का मिश्रण है, जिसे उद्दीप्त कोयले से 12 सेन्टीग्रेड तापक्रम पर तैयार किया जाता है. इसके अन्तर्गत विशालकाय 500 टन के चुम्बकों को लिया जाता है तथा नीलजल (Blue Water) में इसका प्रयोग किया जाता है. इस तकनीक के विकसित करने का श्रेय सोवियत संघ को है, जिसका प्रयोग विद्युत उत्पन्न करने में किया जाता है.

महासागरीय ऊर्जा  

हमारे देश में अभी इस वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत का विकास नहीं हुआ है.उनकी इस तकनीक में गैस टर्बाइन को गर्म तथा ठंडे टर्मिनल की भाँति प्रयुक्त किया जाता है जिससे विद्युत उत्पन्न होती है. धरातल तथा गहरे समुद्र के तापक्रम के अन्तर से ऊर्जा उत्पन्न करने का विचार सर्वप्रथम फ्रान्स के एक भौतिकशास्त्र को आया. उन्होंने समुद्री उष्मा का रूपान्तरण विद्युत ऊर्जा के रूप में करने सम्बन्धी कार्य किया.

ऊर्जा संसाधनों का संरक्षण  

 अतः यथासम्भव ऊर्जा को बचाने अर्थात् अपव्यय रोकने का प्रयास करना चाहिए. ऊर्जा संरक्षण सम्बन्धी प्रयोग दो स्तरों पर किए जा सकते हैं:- 1. वैयक्तिक स्तर पर 2. राष्ट्रीय स्तर पर.ऊर्जा के अपव्यय को रोककर हम जितनी ऊर्जा बचाते हैं उसकी शक्ति, नवीन उत्पादित यूनिट की शक्ति की सवा गुनी मानी जाती है. ऊर्जा के संरक्षण में पहला कदम है ऊर्जा की बचत करना. वृक्षों के कटने से वन संकुचित हुए हैं, बागों का क्षेत्रफल कम हुआ है तथा वृक्षों के अभाव में सूखा, बाढ़, भूस्खलन, मृदाक्षरण, मरुस्थल विस्तार आदि पर्यावरणीय समस्याएँ उठ खड़ी हुई हैं, ऊर्जा का प्रधान स्रोत पर्यावरण ही है अतः हमें ऊर्जा के उपयोग को इस प्रकार सुनिश्चित करना होगा ताकि पर्यावरण सुरक्षित रहे तथा ऊर्जा के भंडार आगामी पीढ़ियों के लिए भी उपलब्ध रहें. ईंधन के रूप में लकड़ी प्रयुक्त करने के लिए वृक्षों की कटाई लम्बे समय से जारी है. जीवाश्म ईंधन स्रोतों के अंधाधुंध उपयोग से हम इनके भंडारों को रिक्त करते चले जा रहे हैं. ऊर्जा संसाधनों का उपयोग तकनीकी विकास के साथ-साथ परिवर्तित होता गया है.

वैयक्तिक स्तर पर

  • ऊर्जा संरक्षण हेतु हम निम्नांकित उपाय कर सकते हैं:-
  • अच्छे एवं मानक स्तर वाले उपकरणों का उपयोग किया जाए.
  • प्रकाश के लिए उच्च गुणवत्ता वाले लैम्पों का उपयोग किया जाए.
  • यथासम्भव ट्यूब लाइट का उपयोग किया जाए.
  • दिन में विद्युतप्रकाश का उपयोग न करके सूर्य के प्रकाश का उपयोग किया जाए.
  • रसोई गैस का उपयोग आवश्यकतानुसार ही करना चाहिए.
  •  आवश्यकता न होने पर विद्युत उपकरणों, जैसे – पंखे, बल्ब आदि को बन्द रखना चाहिए. चूल्हें को बेकार में जलता नहीं छोड़ना चाहिए.
  • मोटर-वाहन के इंजन को सदैव दुरुस्त रखना चाहिए अन्यथा पेट्रोल भी अधिक व्यय होगा.

राष्ट्रीय स्तर पर

ऊर्जा संरक्षण हेतु निम्नांकित उपाय किए जा सकते हैं:-

  • कोयले का भंडार सीमित है अतः इसे अत्यन्त सावधानीपूर्वक उपयोग करने की आवश्यकता है. वैकल्पिक ऊर्जा की व्यवस्था के लिए तापविद्युत गृह लगाए जाने चाहिए.
  • पेट्रोलियम पदार्थों के भंडार समाप्ति की ओर अग्रसर हैं. ऐसी दशा में पेट्रोल के साथ एल्कोहल मिश्रित करके वाहनों को चलाने की व्यवस्था करना आवश्यक है. इसकी कीमत भी पेट्रोल से कम होगी, पेट्रोल की बचत भी होगी और वायु प्रदूषण 35% से 60% तक कम हो जाएगा.
  • पारिस्थितिकीय तत्त्वों का ध्यान रखते हुए जल विद्युत विकास की दिशा में विद्युत परियोजनाएँ संचालित की जानी चाहिए.
  • देश में उपलब्ध थोरियम का उपयोग नाभिकीय ऊर्जा विकास की दिशा में किया जाना चाहिए. इस सम्बन्ध में फ्यूज़न विधि का विकास करना चाहिए.
  • ऊर्जा के वानस्पतिक स्रोतों के विकास पर ध्यान देना चाहिए. वनारोपण, पेट्रोलियम वृक्षों को लगाना तथा एल्कोहल उत्पादन की दिशा में विशेष प्रयास करना चाहिए.
  • बायोगैस संयंत्रों के उपयोग को लोकप्रिय बनाया जाना चाहिए.
  • सौर ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा देना चाहिए.
  • ईंधन की बचत करने वाली तकनीकी का विकास करना चाहिए.
  • पवन ऊर्जा से चलने वाली पवन चक्कियों के स्वरूप में परिमार्जन कर उनका उपयोग अधिक व्यापक बनाना चाहिए.
  • ऊर्जा संरक्षण की विधियों से जन साधारण को परिचित कराया जाना चाहिए.

Tags : NCERT and NIOS Chapters PDF as Sources. Conventional and non-conventional sources of Energy in Hindi.

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