स्वराज दल की स्थापना, उद्देश्य और पतन – Swaraj Party

Sansar Lochan#AdhunikIndia, Modern History

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1921 ई. में महात्मा गाँधी द्वारा असहयोग आन्दोलन (Non Cooperation Movement) को बंद किये जाने के कारण बहुत-से नेता क्षुब्ध हो गए. इसी कारण कुछ नेताओं ने मिलकर एक अलग दल का निर्माण किया, जिसका नाम स्वराज दल रखा गया. इस दल की स्थापना 1 जनवरी, 1923 को देशबंधु चित्तरंजन दास तथा पं. मोतीलाल नेहरु ने की. इस दल का प्रथम अधिवेशन इलाहबाद में हुआ, जिसमें इसका संविधान और कार्यक्रम निर्धारित हुआ.

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इस दल के निम्नलिखित उद्देश्य निश्चित किये गए – – Objectives of Swaraj Party

  1. भारत को स्वराज्य (Self Rule) दिलाना
  2. परिषद् में प्रवेश कर असहयोग के कार्यक्रम को अपनाना और असहयोग आन्दोलन को सफल बनाना
  3. सरकार की नीतियों का घोर विरोध कर उसके कार्यों में अड़ंगा लगाना, जिससे उसके कार्य सुचारू रूप से नहीं चल सकें और सरकार अपनी नीतियों में परिवर्तन के लिए विवश हो जाए.

इन उदेश्यों की प्राप्ति के लिए निम्नलिखित कार्यक्रम निर्धारित किये गए – – Programs to achieve Objectives 

  1. परिषद् में जाकर सरकारी आय-व्यय के ब्यौरे को रद्द करना
  2. सरकार के उन प्रस्तावों का विरोध करना, जिनके द्वारा नौकरशाही को शक्तिशाली बनाने का प्रयत्न हो
  3. राष्ट्र की शक्ति में वृद्धि लाने वाले प्रस्तावों, योजनाओं और विधेयकों को परिषद् में प्रस्तुत करना
  4. केन्द्रीय और प्रांतीय व्यवस्थापिका सभाओं के सभी निर्वाचित स्थानों को घेरने के लिए प्रयत्न करते रहना जिससे कि स्वराज दल की नीति को अधिक प्रभावशाली बनाया जा सके
  5. परिषद् के बाहर महात्मा गांधी द्वारा निर्धारित रचनातमक कार्यक्रम को सहयोग प्रदान करना
  6. हमेशा सत्याग्रह के लिए तैयार रहना और यदि आवश्यक हो तो पदों का त्याग भी कर देना

स्वराज दल ने अपने इन कामों को पूरा करने में अप्रत्याशित सफलता प्राप्त की. केन्द्रीय धारा सभा में 145 स्थानों में 45 स्थान स्वराज दल के प्रतिनिधियों ने प्राप्त किये. वहां उन्होंने स्वतंत्र तथा राष्ट्रवादी सदस्यों से गठबंधन कर अपना बहुमत बनाया और सरकार के कार्यों में अड़ंगा डालना शुरू किया. बंगाल में इस दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ. वहाँ के गवर्नर ने स्वराज दल के नेता C.R. Das को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया.

स्वराज दल के पतन के कारण – – Reasons behind the failure of Swaraj Party

1. देशबंधु चितरंजन दास की मृत्यु- चितरंजन दास (Chittaranjan Das) महान् देशभक्त थे. इसलिए उन्हें “देशबंधु” नाम दिया गया था. 1925 ई. में उनकी मृत्यु हो गयी जिससे स्वराज दल का संगठन कमजोर पड़ गया. विशेषकर बंगाल में इस party की स्थिति अत्यंत शिथिल पड़ गयी.

2. सहयोग की नीति- आरम्भ में स्वराजवादियों ने असहयोग की नीति अपनाई थी और सरकार के कार्यों में विघ्न डालना ही उनका प्रमुख उद्देश्य बन गया था. परन्तु उन्हें बाद में लगने लगा कि असहयोग की नीति अपनाने से देश को लाभ के बदले हानि ही हो रही है. इसलिए उन्होंने सहयोग की नीति अपना ली. परिणामस्वरूप जनता में उनकी लोकप्रियता घटने लगी.

3. स्वराज दल में मतभेद- पंडित मोतीलाल नेहरु (Motilal Nehru) सरकार से असहयोग करनेवालों का नेतृत्व कर रहे थे. दूसरी ओर बम्बई के स्वराज दल के नेता सहयोग के पक्ष में आ गए थे. इस प्रकार स्वराज दल में मतभेद उभर आया.

4. 1926 का निर्वाचन- 1926 ई. के निर्वाचन में स्वराजवादियों को वह सफलता प्राप्त नहीं हो सकी जो उन्होंने 1923 ई. के निर्वाचन में मिली थी. इससे पार्टी को बहुत बड़ा धक्का लगा.

5. हिंदूवादी दल की स्थापना- पं. मदनमोहन मालवीय और लाला लाजपत राय  की धारणा यह थी कि स्वराजवादियों की अड़ंगा नीति से हिन्दुओं को हानि होगी और मुसलमानों को लाभ. यह सोचकर उन्होंने Congress से हटकर एक नया दल बनाया. उनके इस निर्णय से कांग्रेस के साथ-साथ स्वराज दल को बड़ा झटका लगा.

Detailed Explanation
——–विस्तार से स्वराज दल के बारे में नीचे पढ़ें———

स्वराज दल के उद्देश्य

स्वराज दल का मूल उद्देश्य था स्वराज प्राप्त करना. गांधीवादियों का भी यही उद्देश्य था. लेकिन दोनों में स्वराज प्राप्ति के साधनों में अन्तर था. स्वराजवादी गांधीजी के असहयोग आन्दालेन में विश्वास नहीं करते थे. उनका कहना था कि असहयोग की नीति को अपनाया जाए लेकिन कौंसिल में प्रवेश कर क्रियान्वित किया जाए अथार्त् स्वराजवादियों का लक्ष्य कौंसिल में प्रवेश कर सरकार के कार्य में अड़ंगा लगाना और अन्दर से उसे नष्ट करना था. स्वराजवादियों के उद्देश्यों को संक्षेप में निम्न रूप से रखा जा सकता है –

  1. भारत के लिए स्वराज प्राप्ति.
  2. उस परिपाटी का अन्त करना, जो अंग्रेजी सत्ता के अधीन भारत में विद्यमान थी.
  3. कौंसिल में प्रवेश कर असहयोग के कार्यक्रम को अपनाना और असहयोग आन्दालेन को सफल बनाना.
  4. सरकार की नीतियों का घोर विरोध कर उसके कार्यों में अड़ंगा लगाना, जिससे उसके कार्य सुचारू रूप से नहीं चल सके और सरकार अपनी नीति में परिवर्तन करने को विवश हो.

स्वराज दल के कार्यक्रम

स्वराज दल ने अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए निम्नलिखित कार्यक्रम निश्चित किया-

  1. सरकारी बजट रद्द करना
  2. उन प्रस्तावों का विरोध करना, जो नौकरशाही को शक्तिशाली बनाने का प्रयत्न करे
  3. उन प्रस्तावों, योजनाओं और विधेयकों को कौंसिलों में प्रस्तुत करना, जिनके द्वारा राष्ट्र की शक्ति में वृद्धि हो तथा नौकरशाही की शक्तियों में कमी हो
  4. कौंसिल के बाहर रचनात्मक कार्यो में सहयोग करना
  5. समस्त प्रभावशाली स्थानों पर अधिकार
  6. आवश्यक होने पर पदों का त्याग.

स्वराज दल के कार्य

मोंटफोर्ड सुधारों को नष्ट करने के उद्देश्य से स्वराजवादियों ने मोती लाल नेहरू और चित्तरंजन दास के नेतृत्व में 1923 के निर्वाचन में भाग लिया. मध्य प्रांत में इसे पूर्ण बहुमत तथा बंगाल में आशातीत सफलता मिली. मध्यप्रांत और बंगाल में उन्होंने द्वैध शासन को निष्क्रिय बना दिया. इन प्रांतों मे मंत्रिमंडल का निर्माण असंभव हो गया क्योंकि स्वराज दल जिसे स्पष्ट बहुमत प्राप्त था, न तो स्वयं सरकार का निर्माण करना चाहता था न दूसरे दलों को मंत्रिमंडल का निर्माण करने देना चाहता था. केन्द्रीय विधान सभा में स्वराजवादियों को 145 में से केवल 45 स्थान प्राप्त हुए, फिर भी कुछ निर्दलीय सदस्यों की सहायता से उन्होंने सरकार का डटकर मुकाबला किया. ऐसा मौका भी आया जब उन्होंने सरकार को पराजित किया. 1925 में वे विट्ठल भाई पटेल को केन्द्रीय विधायिका का अध्यक्ष निर्वाचित करवाने में सफल रहे. उन्होंने कई बार असेम्बली से ‘वाक आउट’ किया आरै सरकार की प्रतिष्ठा को धक्का पहुँचाया.

स्वराज दल की नीति में परिवर्तन

प्रारंभ में स्वराज दल ने सरकार के साथ सहयोग की नीति अपनायी आर उसके कार्यों मे अड़ंगे लगाये. लेकिन उसे इस नीति में विशेष सपफलता नहीं मिली. अतः उसकी नीति में स्वतः परिवर्तन आने लगे. उन्होंने असहयोग के स्थान पर उत्तरदायित्वपूर्ण सहयोग (responsive co-operation) की नीति अपनानी शुरू कर दी. यहाँ तक कि चित्तरजंन दास अपने जीवन काल में यह अनुभव करने लगे थे कि असहयोग की नीति लाभप्रद नहीं है. 1924 ई. में फरीदपुर सम्मेलन में उन्होंने सरकार से समझौता करने के लिए कुछ प्रस्ताव भी प्रस्तुत किए थे. लेकिन कुछ स्वराजवादी अभी भी ‘अड़ंगा’ की नीति में विश्वास करते थे. अतः  स्वराज दल में फूट दिखायी पड़ने लगी. सरकार ने इस मौका का फायदा उठाया और सहयोगवादियों को विभिन्न समितियों में स्थान देकर खुश करना शुरू कर दिया. 1924 में कुछ प्रमुख स्वराजवादियों को ‘इस्पात सुरक्षा समिति’ में स्थान दिया. 1925 में स्वयं मोतीलाल नेहरू ने ‘स्कीन समिति’ सदस्यता स्वीकार कर ली तथा विट्ठल भाई पटेल केन्द्रीय व्यवस्थापिका के अध्यक्ष चुने गये. थोड़े समय में स्वराज दल की नीति में पूर्णतया परिवर्तन हो गया. असहयोग का स्थान उत्तरदायी सहयोग ने ले लिया. फलतः स्वराज दल कमजोर हो गया और इसका आकर्षण जाता रहा. अतः 1926 में निवार्चन में इसे बहुत कम सफलता प्राप्त हुई.

स्वराज दल का पतन

1926 ई. तक स्वराज दल की शक्ति समाप्त हो गयी. उसके पतन के प्रमुख कारण निम्न थे :-

नीति में परिवर्तन

स्वराज दल ने देखा कि उसकी असहयोग नीति सफल नहीं हो रही है. अतः उन्होंने सरकार के साथ सहयोग की नीति अपनानी शुरू कर दी. फलतः उसका राष्ट्रवादी रूप धीमा पड़ गया और उसका आकर्षण जाता रहा.

चितरंजन दास की मृत्यु

श्री चित्तरंजन दास स्वराज दल के जन्मदाता तथा उसके प्रमुख स्तम्भ थे. 1925 में उनकी मृत्यु के बाद दल लड़खड़ा गया.

हिन्दू-मुस्लिम दंगा

हिन्दू-मुस्लिम दंगे ने दल की एकता को नष्ट कर दिया. 1925 में जिन्ना और मोतीलाल नेहरू के बीच मतभेद हो जाने से भी केन्द्रीय विधान सभा में स्वराज दल का प्रभाव कम हो गया.

कांग्रेस में एक अन्य दल की स्थापना

स्वराज दल के अतिरिक्त कुछ नेताओं ने कांग्रेस के अन्दर ही एक अन्य स्वतंत्र दल की स्थापना की. इसके नेता पंडित मदन मोहन मालवीय और लाला लाजपत राय थे. इस दल ने हिन्दुत्व का नारा लगाया, जिसके झण्डे के नीचे उत्तर भारत के हिन्दू संगठित होने लगे. फलतः स्वराज दल के अनुयायियों की संख्या तेजी से घटने लगी.

दल में फूट

आपसी मतभेद के कारण स्वराज दल में फूट पड़ गयी. कुछ स्वराजवादी नीति में परिवर्तन और सरकार के साथ सहयोग के पक्ष में थे, जबकि कुछ असहयोग की मौलिक नीति पर डटे रहना चाहते थे. फरीदपुर सम्मेलन में स्वराजवादियों की आपसी फूट स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होने लगी.

स्वराज दल के कार्यों का महत्त्व

स्वराजवादियों के कार्यों की तीखी आलोचना की जाती है. अनेक कांग्रेसी नेताओं का विचार था कि ‘अड़ंगा डालने की नीति’ अव्यावहारिक और निरर्थक थी. डॉ. जकारिया का विचार है कि ‘स्वराजवादियों की स्थिति उन व्यक्तियों जैसी थी, जो अपनी रोटी को रखना भी चाहते हैं और खाना भी.’ स्वराज दल अपने उद्देश्यों में आंशिक सफलता ही प्राप्त कर सका. इनके विरोध के बावजूद सरकारी नीतियों में कोई परिवर्तन नहीं हो सका. इसके बावजूद इस दल के कार्यों का महत्व इस बात में है कि इसने असहयोग आन्दालेन के बाद की शिथिलता के समय जनता में उत्साह और साहस का वातावरण तैयार किया. जिस समय कांग्रेस रचनात्मक कार्यों में व्यस्त थी और गांधीजी राजनीतिक निर्वासन का जीवन व्यतीत कर रहे थे, उस समय स्वराजवादियों ने राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व संभाला तथा अपनी अड़ंगावादी नीतियों के परिणामस्वरूप द्वैध शासन को व्यर्थ कर दिया. साइमन कमीशन ने भी यह स्वीकार किया था कि उस समय स्वराज दल ही एक ससुगंठित आरै अनुशाषित दल था, जिसके पास एक सुनिश्चित कार्यक्रम था. संक्षेप में, स्वराज दल ने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के अन्धकारपूर्ण समय में आशा की किरण प्रज्वलित की और जनता में उत्साह तथा नवजीवन का संचार किया.

स्वराज दल से सम्बंधित विगत परीक्षाओं में आए कुछ प्रश्न – Previous Year Questions related to Swaraj Party

1. स्वराज दल की स्थापना कब हुई? [47th BPSC, 2005]

a) 1923

b) 1930

c) 1932

d) 1939

2. स्वराज दल के संस्थापक कौन थे? [UPPSC (Pre), 1995]

a) विपिनचन्द्र पाल और बाल गंगाधर तिलक

b) भीमराव आंबेडकर और रवीन्द्रनाथ टैगोर

c) जवाहर लाल नेहरु और महात्मा गाँधी

d) चित्तरंजन दास और पं. मोतीलाल नेहरु

3. स्वराज दल ने किस राज्य में स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया? [SSC Section Officer Exam, 2007]

a) उत्तर प्रदेश

b) बंगाल

c) गुजरात

d) महाराष्ट्र

(नोट: इस आर्टिकल में ही प्रश्नों के उत्तर छिपे हैं इसलिए इन प्रश्नों का उत्तर स्वयं दें)

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