सन्दर्भ
उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने का फैसला किया है. इन जातियों में निषाद, बिंद, मल्लाह, केवट, कश्यप, भर, धीवर, बाथम, मछुआरा, प्रजापति, राजभर, कहार, कुम्हार, मांझी, तुरहा, गौड़ इत्यादि हैं.
आदित्यनाथ सरकार का मानना है कि इस कदम से सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को आरक्षण के लाभ मिलेंगे.
यह बदलाव शेष ओबीसी जाति समूहों के लिए ओबीसी कोटा में अधिक स्थान छोड़ देगा.
संवैधानिक सवाल
- अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल 17 समुदायों को अनुसूचित जाति की सूची में शामिल करने का उत्तर प्रदेश सरकार का फैसला असंवैधानिक है क्योंकि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग की सूचियों में बदलाव करने का अधिकार केवल संसद् को है.
- संविधान के अनुच्छेद 341(1) के अनुसार, राष्ट्रपति राज्यपाल के परामर्श से अनुसूचित जनजातियों को निर्दिष्ट कर सकते हैं. इसके लिए कोई विशिष्ट मानदंड निर्धारित नहीं किये गये हैं.
- संविधान के अनुच्छेद 341(2) के अनुसार, संसद् की मंजूरी से ही अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग की सूचियों में बदलाव किया जा सकता है.
- अनुसूचित जातियों को वर्गीकृत करने के लिए संवैधानिक (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 जारी किया गया, जिसमें भारत के 29 राज्यों की 1108 जातियों के नाम शामिल किये गए थे.
यह राजनीतिक रूप से क्यों महत्वपूर्ण है?
- SC में सूचीबद्ध जाति को OBC में सूचीबद्ध जाति से अधिक सरकारी लाभ प्राप्त होता है.
- इसके अलावा, चूंकि ओबीसी की आबादी बड़ी है, इसलिए आरक्षण लाभ के लिए ओबीसी समूहों के बीच घनिष्ठ प्रतिस्पर्धा है. अगर इन 17 जातियों को SC की सूची में डाल दिया जाता है, तो उन्हें कम प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ेगा क्योंकि SC की जनसंख्या छोटी है.
- संख्या के आधार पर देखा जाए तो इन सत्रह अति पिछड़ी जातियों की आबादी कुल आबादी की लगभग 14 फीसदी है.
किसी जाति को अनुसूचित जाति के रूप में सूचीबद्ध करने की प्रक्रिया
यदि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची में बदलाव करना है तो इसके लिए पहल राज्य सरकारें करती हैं. इसके पहले वे सक्षम प्राधिकार से यह अध्ययन कराती हैं कि किसी जाति को अपने मूल वर्ग से निकालकर दूसरे वर्ग में डालने के लिए सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक आधार क्या हैं. अनुसूचित जाति में किसी जाति को डालने के पहले विशेष रूप से यह देखा जाता है कि समाज में उसके साथ अस्पृश्यता का बर्ताव होता है या नहीं. जहाँ तक अन्य पिछड़ा वर्ग की बात है तो उसमें यह भी देखा जाता है कि सरकारी सेवाओं में उसका पर्याप्त प्रतिनिधित्व है अथवा नहीं. यदि अध्ययन का निष्कर्ष सकारात्मक होता है तो राज्य सरकारें एक प्रतिवेदन बना कर अपनी अनुशंसा के साथ केंद्र सरकार को भेजती हैं. पुनः केंद्र सरकार प्राप्त प्रतिवेदन का गहन विश्लेषण करती है और यदि उसे उचित प्रतीत होता है तो वह प्रस्तावित बदलाव को अनुमोदित करती है. इसके लिए भारतीय महापंजीयक तथा सम्बंधित राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग की सहमति भी ली जाती है. पुनः इस प्रस्ताव को संसद् से पारित करवाने तथा उस पर राष्ट्रपति का अनुमोदन प्राप्त करने के पश्चात् यह प्रस्ताव कानून बन जाता है.
इस समस्त प्रक्रिया को पहली बार 1999 में सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने अंगीकृत किया था और बाद में उसमें 2002 में संशोधन हुआ था.
निष्कर्ष
आलोचकों का कहना है कि योगी सरकार का यह कदम वोट बैंक बनाने के इरादे से उठाया गया है. सरकार को आशा होगी कि नई-नई अनुसूचित जाति वर्ग में आई जातियाँ सत्तासीन दल का समर्थन करेंगी. परन्तु सरकार का दावा रहेगा कि इन जातियों को आरक्षण का समुचित लाभ नहीं मिल रहा था, अतः यह आवश्यक हो गया था कि इनकी श्रेणी में बदलाव लाया जाए. परन्तु कोई भी कदम उठाने के पहले उसकी विहित प्रक्रिया का पालन आवश्यक होता है. इस मामले में ऐसा नहीं हुआ है जैसा कि भारत सरकार का भी कहना है.
Original Article Link : The Hindi
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