Q1. “1784 ई. का एक्ट एक चतुर और कुटिल प्रस्ताव था जिसने संचालक-समिति की राजनीतिक सत्ता को मंत्रिमंडल के गुप्त और प्रभावशाली नियंत्रण में कर दिया था.” आप इससे कहाँ तक सहमत हैं?
“The 1784 Act was a cunning and crooked proposal that put the political power of the Board of Directors under the confidential and influential control of the council of ministers.” How far do you agree with this?
उत्तर :-
रेग्युलेटिंग एक्ट शीघ्र ही अव्यावहारिक सिद्ध हुआ. इसके द्वारा ब्रिटिश सरकार कम्पनी के प्रशासन और उसकी गतिविधियों पर प्रभावकारी नियंत्रण स्थापित नहीं कर सकी. इस कानून में ब्रिटिश सरकार, कम्पनी, भारत में कम्पनी के अधिकारियों, गवर्नर जनरल एवं उसकी काउन्सिल तथा तीनों प्रेसीडेंसियों के आपसी संबंधों को निश्चित एवं स्पष्ट नहीं किया गया था. फलतः, ब्रिटिश संसद ने 1784 ई. में एक नया कानून बनाया जो पिट्स इंडिया एक्ट के नाम से जाना जाता है. इस कानून द्वारा कम्पनी के मामलों और भारत में उसके प्रशासन पर ब्रिटिश संसद की सर्वोच्चता स्थापित हो गई.
पिट्स इंडिया एक्ट
निष्कर्ष
पिट्स इंडिया एक्ट (Pitt’s India Act) रेग्युलेटिंग एक्ट का पूरक था. इस कानून ने कंपनी की नीतियों को पूरी तरह इंग्लैंड की सरकार के नियंत्रण में ला दिया. यद्यपि इस एक्ट में भी कुछ त्रुटियाँ (drawbacks) थीं. इस एक्ट ने उस प्रशासनिक ढाँचे (Administrative framework) को तैयार किया जो थोड़े-बहुत संशोधनों (amendments) के साथ 1858 ई. तक चलता रहा.
वस्तुतः, भारत के मुग़ल सम्राट का स्थान अब लंदन स्थित बोर्ड ऑफ़ कण्ट्रोल के अध्यक्ष ने ग्रहण कर लिया. इस कानून के द्वारा उस प्रशासनिक ढाँचे का निर्माण किया गया जिसके आधार पर 1857 ई. तक भारत में कम्पनी का प्रशासन चलता रहा, यद्यपि आवश्यकतानुसार इसमें समय-समय पर संशोधन भी किये गये. कॉर्नवालिस ने पिट्स इंडिया एक्ट का सहारा लेकर न्याय-व्यवस्था, पुलिस और नागरिक प्रशासन की एक सुदृढ़ रुपरेखा तैयार की. उसके द्वारा तैयार किये गये प्रशासनिक ढाँचे का बाद में विकास, संशोधन एवं परिवर्धन किया गया.
Q2. ब्रिटिशकालीन भारत में मध्यम वर्ग के सामाजिक योगदान की संक्षिप्त चर्चा करते हुए बताइये कि इस वर्ग की ब्रिटिश राज के प्रति क्या भावना रही?
Briefly discuss the social contribution of the Indian middle class during the British era and describe the feelings of this class towards the British Raj.
आधुनिक भारत या ब्रिटिशकालीन भारत में उदित एवं विकसित इस नवीन मध्यम वर्ग का योगदान भारतीय सामाजिक एवं राष्ट्रीय चेतना के विकास में बहुत ही महत्त्वपूर्ण रहा है. 19वीं शताब्दी में कंपनी-शासन की समाप्ति एवं ब्रिटिश ताज के शासन के वर्षों में भी वाणिज्य-व्यवसाय के अलावा शिक्षा, साहित्य और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के क्षेत्र में मध्यम वर्ग के लोगों का योगदान सराहनीय रहा. ईश्वरचंद्र विद्यासागर, राजा राममोहन राय, केशवचंद्र सेन इत्यादि मध्यम वर्ग से ही आते थे.
आधुनिक भारत के निर्माण में इन सभी बहुमूल्य योगदान रहा है. राजा राममोहन राय तो आधुनिक भारत के जनक ही माने जाते हैं. राष्ट्रनिर्माण एवं समाजसुधार की अनेक महत्त्वपूर्ण योजनाओं एवं भूमिकाओं में क्रियाशील एवं अवतरित होने का श्रेय इसी नव-उदित मध्यम वर्ग को दिया जाता है. आगे चलकर जिन अनेक प्रगतिशील संस्थाओं का जन्म हुआ, जैसे – ब्रह्म समाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज, रामकृष्ण मिशन, थियोसोफिकल सोसाइटी, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस इत्यादि, उन सभी में मध्यम वर्ग ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई. इस वर्ग ने नीति-निर्धारण, नेतृत्व और सबल संगठनात्मक शक्ति द्वारा जनमानस में जागृति लाने, उन्हें प्रशिक्षित एवं संगठित करने का कार्य किया. पराधीनता की पृष्ठभूमि में मध्यम वर्ग, विशेषकर शिक्षित मध्यम वर्ग का मुख्य कार्य सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय विरासत को विकसित एवं पुनः प्रतिष्ठित करना था. इस कार्य को इसने कुशलतापूर्वक किया.
मध्यम वर्ग प्रारंभ में अंग्रेजी शासन के प्रति अच्छी भावना रखता था. अनेक व्यक्ति अंग्रेजी शासन को भारत के लिए एक वरदान मानते थे और इस बात पर गौरवान्वित महसूस करते थे कि अंग्रेज जाति उनका शासक है. इस मनोवृत्ति के वशीभूत होकर मध्यम वर्ग लंबे समय तक भारत में अंग्रेजी शासन का आधारस्तंभ बना रहा. कालांतर में अंग्रेजी प्रशासकीय एवं आर्थिक नीतियाँ के चलते यह वर्ग धीरे-धीरे सरकार से विमुख होने लगा. अंग्रेजों की प्रजातीय भेदभाव की नीति, भारतीयों से गुलाम-सदृश व्यवहार, सरकारी नौकरियों में पक्षपात की नीति, भारत को ब्रिटेन के आर्थिक उपनिवेश में परिवर्तित कर देने की अंग्रेजों की मंशा, पाश्चात्य राजनीतिक चिंतनों एवं दर्शनों के प्रभाव में आकर यह वर्ग अंग्रेजी शासन का विरोधी बन बैठा.
यद्यपि असहयोग आंदोलन को जन-आंदोलन कहा जाता है, परंतु इस आंदोलन के प्रणेता भी मध्यम वर्ग के ही व्यक्ति थे. इस आंदोलन के तहत जो काम करना था, वह मध्यम वर्ग द्वारा ही मुख्यतः संभव था. जनसाधारण और मजदूरों को इस आंदोलन में विशेष भूमिका नहीं सौंपी गईं. उदाहरणस्वरूप, अदालतों का बहिष्कार, शिक्षा संस्थाओं का बहिष्कार, सरकारी नौकरियों से इस्तीफा देना, विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार इत्यादि ऐसे कार्य थे जो मध्यम वर्म के सदस्यों द्वारा ही संभव थे.