वाकाटक वंश – Vakataka Dynasty in Hindi

Sansar LochanAncient History

उत्तर महाराष्ट्र और विदर्भ (बरार) में सातवाहनों का स्थान वाकाटकों ने लिया. वास्तव में सातवाहनों के पतन एवं छठी शताब्दी के मध्य तक चालुक्य वंश के उदय तक दक्कन में वाकाटक ही सबसे महत्त्वपूर्ण शक्ति थे जिन्होंने दक्षिण एवं कभी-कभी मध्य भारत के कुछ क्षेत्रों पर भी अपनी सत्ता स्थापित रखी.

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वाकाटक कौन थे ?

यह अब भी एक ऐतिहासिक प्रश्न बना हुआ है. कुछ इतिहासकारों का मत है कि वाकाटक ब्राह्मण होने के साथ-साथ एक स्थानीय शक्ति थे. जबकि अन्य विद्वानों के अनुसार, बुन्देलखण्ड स्थित छोटे से गांव वगत से वे सम्बन्धित थे किन्तु कुछ अन्य लोग उन्हें आंध्र मूल का मानते हैं. जो भी हो वाकाटक राजशक्ति का उदय उस समय हुआ जब मध्यप्रदेश से अन्तिम सातवाहन वंश का शासन समाप्त हो चुका था और सातवाहनों के साथ लम्बे युद्ध के कारण शक सूबेदारों की शक्ति भी बहुत कुछ क्षीण हो चुकी थी.

वाकाटक वंश

पुराणों के आधार पर अधिकांश विद्वानों की राय है कि विन्ध्यशक्ति नाम का व्यक्ति इस राजवंश का संस्थापक तथा बरार स्थित पुरिका उनकी प्रारम्भिक राजधानी थी. विन्ध्यशक्ति विष्णु वृद्धि गोत्र का ब्राह्मण था. अभी तक विद्वान यह तय नहीं कर पाये हैं कि क्या उसने कोई राज उपाधि ग्रहण करके राज्य किया अथवा वेसे ही राज्य किया.

उसके बाद उसका पुत्र प्रवरसेन प्रथम (सम्भवतः 280 ई०) राजसिंहासन पर बैठा. वह भी शासक था तथा सभी दिशाओं में कुछ क्षेत्र जीतकर उसने अपना राज्य विस्तृत किया. उसके काल में वाकाटक राज्य बुन्देलखण्ड से लेकर हैदराबाद तक फैल गया. वह सम्राट की उपाधि धारण करने वाला प्रथम वाकाटक शासक था. उसने अनेक वैदिक यज्ञ किये. उसके चार पुत्र थे. उसने अपने पुत्रों को पृथक-पृथक प्रान्त का राज्य सौंपा. सम्भवतः इस शक्ति विभाजन के कारण ही बाद में वाकाटक राज्य दुर्बल हो गया तथा अन्य किसी राजा ने महाधिराज की उपाधि धारण नहीं की.

उसका (प्रवरसेन प्रथम) सबसे बड़ा पुत्र गौतमीपुत्र उसी के जीवनकाल में मर गया. उसके दूसरे पुत्र सर्वसेन ने दक्षिणी बरार तथा हैदराबाद के उत्तरी पश्चिमी भाग पर राज्य किया. उसके अन्य पुत्र गौतमीपुत्र के बेटे रुद्रसेन ने अपने पिता की तरह नागपुर के केन्द्र से राज्य किया. उसी के पौत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय जैसे गुप्त वंशीय सम्राट की पुत्री प्रभावती गुप्त से विवाह किया. उसे रुद्रसेन द्वितीय कहते हैं जो पृथ्वीसेन (385-390) का पुत्र था. सम्भवतः इसी वैवाहिक सम्बन्ध के कारण समुद्रगुप्त के दक्षिण भारत से सम्बन्धित विजय अभियानों का वाकाटक शासक रुद्रसेन द्वितीय पर प्रभाव नहीं पड़ा. किन्तु पांच वर्ष के अल्पकालीन शासन के बाद ही रुद्रसेन द्वितीय की मृत्यु हो गयी और उसकी विधवा प्रभावती ने 13 वर्ष तक अपने दो नावालिक पुत्रों की संरक्षिका के रूप में शासन किया. कहा जाता है कि प्रभावती ने अपने पिता प्रसिद्ध गुप्त वंशीय सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय को गुजरात तथा काठियावाड़ को जीतने में बड़ी सहायता की थी.

उसके तेरह वर्ष संरक्षिका के रूप में जब समाप्त हुए तभी उसका ज्येष्ठ पुत्र दिवाकर सेन मर गया तथा वह अपने पुत्र दामोदर सेन की संरक्षिका बनी रही जो शीघ्र ही दामोदर सेन प्रवरसेन द्वितीय के नाम से स्वतंत्र रूप से शासन करने लगा. उसने लगभग 35 वर्ष तक राज किया (410-435). वह विष्णु सम्प्रदाय का पक्का भक्‍त तथा शांतिप्रिय शासक के रूप में लोकप्रिय हुआ. उसने साहित्य में रुचि ली. उसकी स्वयं की सेतुबंध नामक काव्य रचना बहुत प्रसिद्ध हुई. कहा जाता है कि उसी ने प्रवरपुर को वाकाटक राज्य की नई राजधानी बनाया था.

अन्य तथ्य

वाकाटक शासक साहित्य प्रेमी एवं कला के पोषक थे. ब्राह्मणों को बड़ी संख्या में ताम्र-भूमि अधिकार पत्र देने के कारण वाकाटक प्रसिद्ध हैं. वे ब्राह्मण धर्म के महान पक्षधर थे. उन्होंने अनगिनत वैदिक यज्ञ किये. उन्होंने गुफा मन्दिरों के निर्माण एवं अजन्ता की चित्रकारी की वृद्धि में विशेष रुचि दिखाई. वे सांस्कृतिक दृष्टि से दक्षिण में ब्राह्मण धर्म और परम्पराओं को फैलाने का माध्यम बने. उनके बाद बादामी के चालुक्यों की शक्ति बढ़ी.

वाकाटक शासन का पतन

वाकाटक की शक्ति का ह्रास किस प्रकार हुआ, इस विषय में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है. सम्भवत: नरेन्द्रसेन (पुत्र श्री दामोदर सेन प्रवर सेन द्वितीय का) शासनकाल (445-465 ई०) में बस्त राज्य के नलवंशी शासक भवदत्त वर्मन ने इस पर आक्रमण कर इसके कुछ भाग को जीत लिया. सम्भवतः बाद में नरेन्द्रसेन ने मालवा, मेकला और कौशल को जीता. लेकिन उसका पुत्र तथा उत्तराधिकारी पृथ्वीसेन द्वितीय ही ऐसा शासक है जिसके बारे में इतिहासकारों को जानकारी है. उसने वाकाटक वंश की खोई शक्ति प्राप्त करने का प्रयास किया. जो भी हो उसके उत्तराधिकारी वाकाटक राज्य की रक्षा न रक सके. प्रसिद्ध इतिहासकार नील कंठ शास्त्री के अनुसार, इस वंश का पतन 515 ई० और 550 ई० के मध्य हुआ. यद्यपि इस वंश के परवर्ती शासकों को अनेक राजाओं से संघर्ष करना पड़ा लेकिन इसकी शक्ति को पूरी तरह बादामी के चालुक्य वंश के राजाओं ने समाप्त किया.

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