आप जानते होंगे कि हाल ही में लोकसभा में दो कृषि विधेयकों- ‘कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्द्धन एवं सुविधाकरण) विधेयक, 2020’ और ‘कृषक (सशक्तिकरण और सरंक्षण) मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं हेतु अनुबंध विधेयक 2020’ को बहुमत से पारित कर दिया गया है. विदित हो कि लोकसभा में आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, 2020 [Essential Commodities (Amendment) Bill, 2020] को पहले ही पारित किया जा चुका है.
सरकार के इस कदम ने कोरोना काल में घरों में सिमटी-सिकुड़ी राजनीति को सड़कों पर ला कर खड़ा कर दिया है. आपको पता होना चाहिए कि इन तीनों विधेयकों का जन्म 5 जून, 2020 को अधिनियमों के रूप में हुआ था. मजे की बात यह है कि तब से लेकर इस सप्ताह संसद में लाये जाने तक किसी भी राजनीतिक दल, किसान संगठन अथवा राज्य सरकार द्वारा कहीं भी कोई विरोध प्रदर्शन नहीं हुआ या विरोध नहीं जताया गया.
अभी तक तो समस्त विपक्षी दलों की सरकारों से लेकर पंजाब की कांग्रेस सरकार और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में सम्मिलित अकाली दल (बादल) और जननायक जनता पार्टी जैसे सहयोगी दलों तक; सब-के-सब इन अध्यादेशों/विधेयकों के पक्ष में दिख रहे थे.
निहित स्वार्थ-प्रेरित आढ़तिया लॉबी द्वारा भरमाये और भड़काये गये किसानों के मार्ग पर उतर आने के पश्चात् अब भिन्न-भिन्न राजनेताओं और राजनीतिक दलों में इन विधेयकों का विरोध करना शुरू कर दिया और सबके बीच किसान भाइयों के प्रति हितैषी दिखने की होड़ मच गयी है. मात्र पंजाब में ही 28 हजार आढ़तिया मौजूद हैं. उनकी पहुँच और प्रभाव न केवल किसानों तक ही सीमित है, बल्कि राजनीतिक दलों में भी उनकी अच्छी पकड़ है. यह विरोध आढ़तिया लॉबी द्वारा प्रायोजित और ‘वोट बैंक की राजनीति’ से प्रेरित विरोध है.
सच्चाई यह है कि इन तीनों विधेयकों की सही और पूर्ण जानकारी किसानों को दी ही नहीं गयी है. वैसे सच कहा जाए तो यह सरकार की विफलता ही मानी जायेगी कि किसानों की कल्याण-कामना से प्रेरित होकर इतने महत्त्वपूर्ण और दूरगामी प्रभाव वाले बदलाव करते हुए केंद्र सरकार को ‘वास्तविक लाभार्थियों’ तक सही समय पर सही जानकारी पहुँचानी चाहिए थी. यदि केंद्र सरकार ने ऐसा किया होता तो आज विपक्षी दलों को अन्नदाता के भविष्य को दाँव पर लगाकर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने का अवसर न मिल पाता.
ग्रामीण समाज, विशेषकर किसानों की अशिक्षा और पराश्रितता का लाभ उठाकर यह आग भड़कायी गयी है. भले ही बाद में सही, जब किसानों को वास्तविकता का पता चलेगा तो इन दलों का ‘वोट बैंक का गुणा-गणित’ गड़बड़ा जायेगा. वास्तव में, ये विधेयक कृषि-उपज की विक्रय-व्यवस्था को व्यापारियों/आढ़तियों से मुक्त कराने का मार्ग प्रशस्त करेंगे. साथ ही ये विधेयक बाजार के अनिश्चतताओं से भी किसानों को सुरक्षा-कवच प्रदान करेंगे .
इन विधेयकों में सबसे अधिक और तीव्र विरोध कृषक उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्द्धन और सुविधाकरण) विधेयक का हो रहा है. इस विधेयक के सम्बन्ध में सबसे बड़ा असत्य समाचार यह फैलाया गया है कि यह किसान की उपज के लिए सरकार द्वारा साल-दर-साल घोषित होने वाली ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था’ की समाप्ति करने वाला है. जबकि सच्चाई कुछ और ही है. कृषक उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्द्धन और सुविधाकरण) विधेयक के जरिये केंद्र सरकार की इच्छा किसानों को बिचौलियों के चंगुल से मुक्त कराना है. विदित हो कि कृषि उपज विपणन समिति (सरकार द्वारा अभी तक कृषि उत्पादों के क्रय-विक्रय हेतु अधिकृत मंडी) के नीति-नियंता आढ़तियों को पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान आदि क्षेत्रों पर सामान्य बोलचाल में दलाल कहा जाता है. ये आढ़तिया कमीशन-एजेंट होते हैं. मंडी में अपनी मोनोपॉली का लाभ उठाकर न केवल कृषि उपज की बिक्री पर मोटा कमीशन खाते हैं, बल्कि माप-तोल में भी कटौती, कम तौलना आदि गड़बड़ घोटाला करते हैं. किसानों को मोटी ब्याज पर पैसा देते हैं. किसान बाध्य होकर अपनी उपज को उसी आढ़तिया के पास लेकर चले जाते हैं, जिससे ब्याज पर पैसा ले रखा है. परन्तु, राहत की बात यह है कि यह विधेयक इन बिचौलियों के शिकंजे से अन्नदाता की मुक्ति का मार्ग है.
हम आशा करते हैं कि इस विधेयक के द्वारा किसानों को उनकी खून-पसीने से कमाई गयी फसल का न्यायसंगत और प्रतिस्पर्धी मूल्य दिलाया जाएगा. इससे मंडियों में व्याप्त लाइसेंस-परमिट राज समाप्त हो जाएगा और वहाँ के भ्रष्टाचार वाले वातावरण से भी किसान को मुक्ति मिलेगी. किसान और छोटे-मोटे व्यापारी अपनी उपज को कहीं भी, किसी को भी उचित दाम पर बेचने के लिए स्वतंत्र होंगे. बाहर या खुले बाजार में अच्छा मूल्य नहीं मिलने के चलते वे अपनी उपज को पूर्व की तरह कृषि उपज विपणन समिति में बेचने के लिए भी स्वतंत्र होंगे. इस विधेयक में पुराने विक्रय मंच की समाप्ति की बात न करके एक और कमीशनमुक्त और सर्वसुलभ मंच उपलब्ध कराने का प्रस्ताव है. यह ‘एक देश,एक बाज़ार’ की अबाध व्यवस्था है. जब यह वैकल्पिक व्यवस्था अस्तित्व में आ जाएगा तो पुरानी शोषणकारी व्यवस्था में भी सुधार का प्रारम्भ होने की प्रबल संभावना है.
कुछ राज्य सरकारों को राजस्व की हानि होने का डर है इसलिए वे इन विधेयकों का विरोध कर रही हैं. सच्चाई तो यह है कि किसान जब अपनी उपज बेचने राज्य सरकार द्वारा संचालित/अधिकृत कृषि उपज विपणन समिति (सरकारी मंडी) का रुख करता है तो उसकी उपज की बिक्री में से न केवल आढ़तिया कमीशन खाता है, राज्य सरकारें भी कमीशन खाने के लिए आ जाती हैं.
यह राज्य सरकारों के लिए कमाई का एक बड़ा माध्यम है. उदाहरणस्वरूप, पंजाब जैसे कृषक प्रधान राज्य में किसान से उसके उपज-मूल्य का लगभग 8.5 प्रतिशत कमीशन वसूला जाता है जिसमें से 3 प्रतिशत बाजार शुल्क, 3 प्रतिशत ग्रामीण विकास शुल्क और 2.5 प्रतिशत ‘आढ़तिया विकास शुल्क’ होता है. अब जब यह नयी व्यवस्था लागू हो जायेगी तो इस 8.5 प्रतिशत कमीशन/शुल्क की प्रत्यक्ष बचत किसान को होगी, जोकि बहुत ही बड़ी रकम होगी. इसके अतिरिक्त उपज की मंडी तक ढुलाई में होने वाला खर्च भी बचेगा. अब आप ही सोचिये कि जब राज्य सरकारों को होने वाली तथाकथित राजस्व की हानि अंततः उत्पादक किसान के हाथ में जा रही है तो फिर किसानों की हमदर्द और हितैषी होने का जो लोग स्वांग भर रहे हैं वे इसका स्वागत कैसे करेंगे?
आज समय की माँग है कि केंद्र सरकार को आगे आकर तीन-चार बिन्दुओं पर पूरी स्पष्टता के साथ युद्ध स्तर पर अपनी बात किसानों के मध्य रखनी चाहिए.
- एक तो, किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य और सरकारी खरीद व्यवस्था के यथावत् चालू रखने के विषय में आश्वस्त करना अनिवार्य है.
- दूसरा, उन्हें यह भी समझाने की जरूरत है कि यह विधेयक पुरानी विक्रय व्यवस्था की समाप्ति न करके उसके बरक्स एक और अधिक सुविधाजनक, किसान हितैषी और बंधनमुक्त व्यवस्था का विकल्प प्रदान करेगा. उन्हें इन दोनों व्यवस्थाओं में से जब जिसे चाहें, अपनी सुविधानुसार चुनने की स्वतंत्रता होगी.
- इसके अतिररिक्त किसानों की एक बड़ी चिंता किसी विवाद की स्थिति में न्यायालय जाने के विकल्प का प्रावधान न होने को लेकर भी है. कृषक उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्द्धन और सुविधाकरण) विधेयक में किसान और व्यापारी के पारस्परिक विवाद की स्थिति में एक ‘समझौता मंडल’ के माध्यम से विवाद के निपटान का प्रावधान है. इस प्रकार के समझौता मंडल की शक्ति, वैधता और निष्पक्षता न्यायालय जैसी नहीं हो सकती. इसलिए समझौता मंडल के निर्णय से यदि किसान भाई असंतुष्ट हों तो ऐसी स्थिति में उनके लिए कोर्ट जाने का विकल्प भी खुला रखना चाहिए.
- जो गाँव से और किसानी पृष्ठभूमि से हैं वे जानते हैं कि भारत में फसल विशेष का अधिक उत्पादन होने की स्थिति में उसे किसानों को अनेक बार लगभग मुफ्त में (दो-चार रुपये किलो तक) बेचना पड़ता है, या कभी-कभी तो फेंकना भी पड़ता है. आलू, प्याज आदि की फसलों के साथ तो प्रायः ऐसा होता है. इसकी बड़ा कारण उत्पादन और खपत का संतुलन नहीं है. आपूर्ति और माँग का असंतुलन इस प्रकार की पीड़ादायक परिस्थतियाँ पैदा करता है जब बच्चे की तरह पाल-पोसकर तैयार की गयी फसल को किसान को खेत में ही जलना,गलाना या फेंकना पड़ता है. किसान के लिए विशेषतः छोटे किसान के लिए उत्पादन और खपत, आपूर्ति और माँग का आकलन और अनुमान कठिन कार्य है, परन्तु जब इस कार्य में पेशेवर लोग आयेंगे तो ऐसा हो सकेगा. कृषक (सशक्तिकरण और सरंक्षण) मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं हेतु अनुबंध विधेयक इसी चिंता से प्रेरित है. इसके माध्यम से किसान बाज़ार के गुणा-गणित से पैदा होने वाली असुरक्षा से मुक्ति पा सकेगा. फसल विशेष के अधिक उत्पादन की स्थिति में भी अपनी उपज को नगण्य मूल्य पर बेचने या फेंकने की विवशता से वह बच सकेगा. यह विधेयक किसान को बाजार के उतार-चढ़ाव की असुरक्षा के प्रति कवच प्रदान करेगा.
अनेक लाभ
- इस विधेयक में प्रावधान है कि व्यापारी, निर्यातकअथवा खाद्य-प्रसंस्करणकर्ता फसल की बुआई के समय ही फसल का मूल्य-निर्धारण करके किसान के साथ अनुबंध करेगा. ‘कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग’ कृषि क्षेत्र की ओर युवा उद्यमियों और निजी निवेश को आकर्षित करेगी.
- अनुबंध के समय किसान को जुताई, बुआई, सिंचाई, मढ़ाई आदि जरूरतों के लिए अग्रिम राशि भी मिल सकेगी. इससे न सिर्फ वह आढ़तियों, साहूकारों आदि से मोटी सूद पर कर्ज लेने से बच सकेगा, बल्कि बाज़ार पर उसकी प्रत्यक्ष निर्भरता भी कम हो जाएगी.
- इस प्रकार का अनुबंध न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर न करने का प्रावधान भी किया जाना चाहिए. ऐसा प्रावधान करके किसान के हितों का समुचित संरक्षण सुनिश्चित किया जा सकेगा और किसान ‘मत्स्य-न्याय’ का शिकार नहीं होगा.
निष्कर्ष
सच्चाई तो यह है कि इन विधेयकों को किसान-विरोधी बताने वाले लोग सबसे बड़े किसान विरोधी और बिचौलियों के हमदर्द हैं. वे किसानों की जिन्दगी में खुशहाली और सम्पदा लाने वाले इन विधेयकों को किसानों के लिए ‘आपदा’ बता रहे हैं. उनका कहना है कि इससे पूरा कृषि उद्योग निजीकरण का शिकार हो जायेगा. विपक्ष के ये दावे भावनात्मक और भ्रमात्मक हैं, और असत्य हैं. विदित हो कि किसानों और कृषि क्षेत्र की चिंताजनक दशा को सुधारने के लिए सन् 2006 में स्वामीनाथन समिति द्वारा दी गयी प्रतिवेदन में भी ऐसे प्रावधानों का उल्लेख है. तब से लेकर आज तक प्रत्येक वर्ष आत्महत्या करने वाले किसानों की दशा सुधारने हेतु स्थायी बंदोबस्त करने की दिशा में कोई भी ठोस कदम नहीं उठाया गया. परिणामस्वरूप, किसान और कृषि-व्यवसाय क्रमशः उजड़ते चले गये हैं. हमें आशा है कि ये विधेयक किसानों की दशा में अद्भुत रूप से सुधार लायेंगे.