[Sansar Editorial] लद्दाख का अतीतः संक्षिप्त प्रदर्शिका

Sansar LochanSansar Editorial 2020

भारत के काश्मीर और बाल्टिस्तान के पूरब में तथा चीन के सिनकियांग के दक्षिण और चीन (तिब्बत) के पश्चिम में एक उच्च पर्वतीय प्रदेश लद्दाख नाम से है.

लद्दाख में आज तिब्बती वंशों का बाहुल्य है पर पुराकाल में वहाँ मोन और दरद जातियों के समाजों का अधिकार था. उसके पूरब में शांगशुंग समाज का क्षेत्र था जिसे बाद में उसके पूरब के पड़ोसी तिब्बत ने जीत लिया. 1950 ई० से जब तिब्बत पर चीन का अधिकार हो गया तो कहा जा सकता है कि लद्दाख के पूरब में भी चीन ही है.

लद्दाख पर विशेष गृद्ध दृष्टि रखनेवाला क्षेत्र रहा है सिनकियांग जो अभी चीन के अधिकार में है. लद्दाख के उत्तर में, काराकोरम पर्वतमाला से आरम्भ होनेवाला सिनकियांग का विशाल क्षेत्र है जिसे महाभारत में तुषार का नाम दिया गया है. इस क्षेत्र के शासकों ने दक्षिण के गिलगित, बाल्टी और लद्दाख पर प्रभुत्व जमाने के अनेकों प्रयास किये थे.

आरम्भकाल में वहाँ आर्यसंस्कृति के होने के कुछ प्रमाण मिले हैं. कुषाणों का राज्य भी वहाँ स्थापित हुआ था. चीन के हानवंश ने ईसाई संवत् के आरम्भकाल में (60 ई० पू० में) सिनकियांग क्षेत्र पर अधिकार जमाया था,उस समय इसे चीन की भाषा में सियु कहते थे. सियु का अर्थ अपरान्त अर्थात् पश्चिमी सीमान्त होता है. अरबी भाषा में इसे इसी अर्थ में कुरीगार और करबी दियार कहा जाता था. यह क्षेत्र जब मुस्लिम बहुल हो गया तो चीनी उसे हुईजियां कहने लगे. वह प्रदेश भिन्नभिन्न इस्लामी वंशों के अधिकार में रहा. चिंग राजवंश ने अपने समय में सियु पर पुनरधिकार किया और 1880 ई० के दशक मे इसे सिनकियांग का नाम दिया जिसका अर्थ होता है पुनर्प्राप्त.

उधर पश्चिमोत्तर में जब काबुल पर इस्लाम शासकों का अधिकार हो गया तो कालान्तर में इस्लामी सेना शासक पूर्व की ओर साम्राज्य विस्तार में लगने लगे काश्मीर और गिलगित में मुस्लिम शासन हो गया और लद्दाख जीतने के अभियान होने लगे.

पर लद्दाख से केवल बाल्टी ही मुस्लिम ले सके. आज बाल्टी बाल्टिस्तान के नाम से ज्ञात है. लद्दाख विशाल रणभूमि बन कर रह गया. उत्तर से सिनकियांग के आक्रमण होते थे, पश्चिम से मुस्लिम सेनाओं के और पूरब से शांगशुंग के शासकों के.

शांगशुंग क्षेत्र में पहले प्रमुखतः हिन्दू और बाद में बोन धर्म माननेवाले शासक हुआ करते थे. उनके ही क्षेत्र में कैलास-मानसरोवर है. शांगशुंग का दक्षिणीपूर्वी क्षेत्र आज भी भूटान (भोटान्त) कहलाता है. शांगशुंग को भारत और नेपाल में भोट कहते थे. कुछ उल्लेखों में उसे नेपाली तिब्बत भी कहा गया है. आज से लगभग एक हजार वर्ष पहले एक भोटराजा ने काबुल के एक हिन्दू राजा को त्रिमुखी विष्णुमूर्ति उपहारस्वरूप दी थी.

इस क्षेत्र पर जब तिब्बती शासकों का आधिपत्य हो गया तो उन लोगों ने पश्चिम बढ़कर लद्दाख को जीतना चाहा और अन्ततः न्यिमागोन नामक एक तिब्बती राजप्रतिनिधि ने 843 ई० में उसे अधिकार में ले लिया.

तब से वहाँ जनसांख्यिक परिवर्तन होने लगा और फिर तेजी से लद्दाख में तिब्बती ही बहुसंख्यक हो गये. इनके प्रयास से वहाँ तिब्बती बौद्ध धर्म भी स्थापित हो गया.पर पारम्परिक आस्थाएँ भी मान्य रहीं.

कालान्तर में लद्दाखियों को इस्लामी धर्म में लाने का बहुत प्रयास पश्चिम के मुस्लिम आक्रमणकारियों ने किया पर करगिल प्रक्षेत्र को छोड़कर लद्दाख में अन्यत्र वे विशेष सफल नहीं हो सके.

1834 ई० रणजीत सिंह के अधीनस्थ डोगरा नरेश गुलाब सिंह के सेनापति जोरावरसिंह ने गिलगित-बाल्टिस्तान, काश्मीर और पूरे लद्दाख को जीतकर राजा को प्रदान कर दिया. सिनकियांग के दक्षिण में स्थित क्षेत्र अक्साईचिन (नामार्थ – उजला पहाड़ी नदी घाटी) पर लद्दाख का दावा रहता था तो उसे भी जीतकर डोगरानरेश ने उसे लद्दाख में जोड़ दिया.

भारत को ब्रिटेन के शासन से मुक्त होने पर तत्कालीन डोगरा शासक ने गिलगित,बाल्टी और लद्दाख को अपने मूल क्षेत्र जम्मू समेत भारत को सौंप दिया.

1962 ई० के युद्ध में चीन ने भारत को हराकर अक्साईचिन फिर से अपने राज्य में मिला लिया. सम्प्रति उसे चीन ने सिनकियांग का एक प्रान्त बना दिया है.

मध्यपश्चिमी एशिया के इन क्षेत्रों में राजनीतिक मानचित्र अतीत में बहुत बदलते रहे हैं, कभी सिनकियांग, कभी शांगशुंग ,कभी तिब्बत तो कभी लद्दाख एक दूसरे पर भारी पड़ते रहे हैं. पुराने इतिहास के आधार पर कोई क्षेत्र किसी भी दूसरे क्षेत्र पर दावा नहीं कर सकता. पर जो क्षेत्र आधुनिक काल में जिसे प्राप्त हैं वे उसी के हैं.

1720 ई० से 1912 ई० तक, लगभग तीन सौ वर्षों तक, तिब्बत चीन का शासित प्रदेश था. वैसे चीन के चिंग राजाओं ने तिब्बत को वहाँ के दलाई लामा के शासन में रख दिया था, वे स्वयम् प्रत्यक्ष शासन नहीं करते थे. तिब्बत को चीन के नियंत्रण से मुक्त तो आधुनिक युग में अंग्रेजों ने दिलाया था. उसी प्रकार राजा गुलाबसिंह ने अक्साईचिन और लद्दाख को जब जीता और उनके वंशज राजा हरिसिंह ने उसे भारत को सौंप दिया तो अब उस पर स्थापित भारतीय अधिकार को चुनौती नहीं दी जा सकती.

लेखक - डॉ. चिरंजीव
लेखक इतिहास के सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं.
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